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________________ ४८० जैन धर्म और दर्शन अवश्य हैं, क्योंकि इनके पहिले अकलंक की कृतियों के ऊपर किसी के व्याख्यान का पता नहीं चलता । इस धारणा के अनुसार दोनों व्याख्याकारों का कार्यकाल विक्रम की नवमीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तो अवश्य होना चाहिए, जो अभी तक के उनके ग्रन्थों के आन्तरिक अवलोकन के साथ मेल खाता है । गन्धहस्ति भाष्य दिगम्बर परम्परा में समन्तभद्र के गन्धहस्ति. महाभाष्य होने की चर्चा कभी चल पड़ी थी। इस बारे में मेरा असंदिग्ध निर्णय यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र के ऊपर या उसकी किसी व्याख्या के ऊपर स्वामी समन्तभद्र ने प्राप्तमीमांसा के अतिरिक्त कुछ भी लिखा ही नहीं है । यह कभी संभव नहीं कि समन्तभद्र की ऐसी विशिष्ट कति का एक भी उल्लेख या अवतरण अकलंक और विद्यानन्द जैसे उनके पदानुवर्ती अपनी कतियों में बिना किये रह सके। बेशक अकलंक का राजवार्तिक गुण और विस्तार की दृष्टि से ऐसा है कि जिसे कोई भाष्य ही नहीं महाभाष्य भी कह सकता है। श्वेताम्बर परंपरा में गन्धहस्ती की वृत्ति जब गन्धहस्ति महाभाष्य नाम से प्रसिद्ध हुई तब करीब गन्धहस्ती के ही समानकालीन अकलंक की उसी तत्त्वार्थ पर बनी हुई विशिष्ट व्याख्या अगर दिगम्बर परम्परा में गन्धहस्ति भाष्य या गन्धहस्ति महाभाष्य रूप से प्रसिद्ध या व्यवहृत होने लगे तो यह क्रम दोनों फिरकों की साहित्यिक परम्परा के अनुकूल ही है। परन्तु हम राजवार्तिक के विषय में गन्धहस्ति महाभाष्य विशेषण का उल्लेख कहीं नहीं पाते। तेरहवीं शताब्दी के बाद ऐसा विरल उल्लेख मिलता है जो समन्तभद्र के गन्धहस्ति महाभाष्य का सूचन करता हो। मेरी दृष्टि में पीछे के सब उल्लेख निराधार और किंवदन्तीमूलक हैं। तथ्य यह ही हो सकता है कि अगर तत्त्वार्थ-महाभाष्य या तत्वार्थ-गन्धहस्ति महाभाष्य नाम का दिगम्बर साहित्य में मेल बैठाना हो तो वह अकलंकीय राजवार्तिक के साथ ही बैठ सकता है। प्रस्तुत संस्करण प्रस्तुत पुस्तक में अकलंकीय तीन मौलिक कृतियाँ एक साथ सर्वप्रथम संपादित हुई हैं। इन कृतियों के संबंध में तात्त्विक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से जितना साधन उपलब्ध है उसे विद्वान् संपादक ने टिप्पण तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टों के द्वारा प्रस्तुत पुस्तक में सन्निविष्ट किया है, जो जैन, बौद्ध, ब्राह्मण सभी परंपरा के विद्वानों के लिए मात्र उपयोगी नहीं बल्कि मार्गदर्शक भी है। बेशक अकलंक की प्रस्तुत कृतियाँ अभी तक किसी पाठ्यक्रम में नहीं हैं तथापि उनका महत्त्व और उपयोगित्व दूसरी दृष्टि से और भी अधिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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