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आगे पीछे उनको पर्याप्त पोषण मिलता था । पर आज लोग शहरों में रहते हैं, पशु-धनका ह्रास हो रहा है और आदमी अशक्त एवं अकर्मण्य हो रहा है । बंगालके १६४३ के अकालमें भिखारियोंमेंसे अधिकांश स्त्रियाँ और बच्चे ही थे, जिन्हें उनके सशक्त पुरुष छोड़कर चले गए थे। केवल अशक्त बच रहे थे; जो भीख माँग कर पेट भरते थे ।
मेरे कहनेका तात्पर्य यह है कि हमें अपनी जीवन-दृष्टि में मौलिक परिवर्तन करना चाहिए । जीवन में सद्गुणोंका विकास इहलोकको सुधारनेके लिए करना चाहिए । आज एक ओर हम अालसी, अकर्मण्य और पुरुषार्थहीन होते जा रहे हैं
और दसरी पोर पोषणकी कमी तथा दुर्बल सन्तानकी वृद्धि हो रही है। गाय रख कर घर-भरको अच्छा पोषण देनेके बजाय लोग मोटर रखना अधिक ज्ञानकी बात समझते हैं । यह खामखयाली छोड़नी चाहिए और पुरुषार्थवृत्ति पैदा करनी चाहिए । सद्गुणोंकी कसौटी वर्त्तमान जीवन ही है । उसमें सद्गुणोंको अपनाने, और उनका विकास करनेसे, इहलोक और परलोक दोनों सुधर सकते हैं। सितम्बर १९४८
[ नया समाज,
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