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________________ ४६२ जैन धर्म और दर्शन एक-सा करते हैं, जब कि उपाध्यायजी उक्त तीनों दोषों का उद्धार अपना सिद्धान्त भेद [ ६२ ] बतला कर ही करते हैं । वे ज्ञानबिन्दु में कर्मक्षय पक्ष पर ही भार देकर कहते हैं कि वास्तव में तो सार्वज्ञ्य का कारण है कर्मक्षय हो । कर्मक्षय को प्रधान मानने में उनका अभिप्राय यह है कि वही केवलज्ञान की उत्पत्ति का श्रव्यवहित कारण है । उन्होंने भावना को कारण नहीं माना, सो प्राधान्य की दृष्टि से । वे स्पष्ट कहते हैं कि — भावना जो शुक्लध्यान का ही नामान्तर है वह केवलज्ञान की उत्पादक अवश्य है; पर कर्मक्षय के द्वारा ही । अतएव भावना केवलज्ञान का श्रव्यवहित कारण न होने से कर्मक्षय की अपेक्षा ↓ प्रधान ही है । जिस युक्ति से उन्होंने भावनाकारणवाद का निरास किया है। उसी युक्ति से उन्होंने श्रष्टकारणवाद का भी निरास । ६३ ] किया है । वे कहते हैं कि अगर योगजन्य दृष्ट सार्वश्य का कारण हो तब भी वह कर्मरूप प्रतिबन्धक के नाश के सिवाय सार्वज्ञ्य पैदा नहीं कर सकता। ऐसी हालत में ष्ट की अपेक्षा कर्मक्षय ही केवलज्ञान की उत्पत्ति में प्रधान कारण सिद्ध होता है । शब्दकारणवाद का निरास उपाध्यायजी ने यही कहकर किया है किसहकारी कारण कैसे ही क्यों न हों, पर परोक्ष ज्ञान का जनक शब्द कभी उनके सहकार से अपरोक्ष ज्ञान का जनक नहीं बन सकता । सार्वय की उत्पत्ति का क्रम सब दर्शनों का समान ही है। परिभाषा भेद भी नहीं - सा है । इस बात की प्रतीति नीचे की गई तुलना से हो जाएगी— Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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