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________________ २७ हरण के रूप में मान लीजिए कि एक बच्चेने किसी धर्म-पुस्तकपर पाँव रख दिया । इस अपराधपर हम उसको तमाचा मार देते हैं। क्योंकि हमारी निगाह में जड़ पुस्तकसे चेतन लड़का हेच है । यदि सही मानों में हम ज्ञान मार्गका अनुसरण करें, तो सद्गुणों का विकास होना चाहिए । पर होता है उलटा । हम ज्ञान-मार्गके नामपर वैराग्य लेकर लँगोटी धारण कर लेते हैं, शिष्य बनाते हैं और अपनी इहलौकिक जिम्मेदारियोंसे छुट्टी ले लेते हैं । दरअसल वैराग्यका अर्थ है जिसपर राग हो, उससे विरत होना । पर हम वैराग्य लेते हैं उन जिम्मेदारियोंसे, जो श्रावश्यक हैं और उन कामोंसे, जो करने चाहिए। हम वैराग्यके नामपर अपंग पशुयोंकी तरह जीवनके कर्म-मार्ग से हट कर दूसरोंसे सेवा करानेके लिए उनके सिरपर सवार होते हैं । वास्तवमें होना तो यह चाहिए कि पारलौकिक ज्ञानसे इहलोकके जीवनको उच्च बनाया जाए। पर उसके नामपर यहाँ के जीवनकी जो जिम्मेदारियाँ हैं, उनसे मुक्ति पानेकी चेष्टाकी जाती है । 1 लोगोंने ज्ञान-मार्गके नामपर जिस स्वार्थान्धता और विलासिताको चरितार्थ किया है, उसका परिणाम स्पष्ट हो रहा है । इसकी प्रोटमें जो कविताएँ रची गई, वे अधिकांश में श्रृंगार - प्रधान हैं । तुकारामके भजनों और बाउलोंके गीतों में जिस वैराग्यकी छाप है, साफ-‍ फ-सीधे अर्थ में उनमें बल या कर्मकी कहीं गन्ध भी नहीं। उनमें है यथार्थवाद और जीवनके स्थूल सत्यसे पलायन । यही बात मन्दिरों और मठों में होनेवाले कीर्त्तनोंके संबन्ध में भी कही जा सकती है । इतिहासमें मठों और मन्दिरोंके ध्वंसकी जितनी घटनाएँ हैं, उनमें एक बात तो बहुत ही स्पष्ट है कि दैवी शक्तिकी दुहाई देनेवाले पुजारियों या साधुोंने उनकी रक्षा के लिए कभी अपने प्राण नहीं दिए। बख्तियार खिलजीने दिल्ली से सिर्फ १६ घुड़सवार लेकर बिहार - युक्तप्रान्त आदि जीते और बङ्गाल में जाकर लक्ष्मणसेन को पराजित किया। जब उसने सुना कि परलोक सुधारनेबालोंके दानसे मन्दिरों में बड़ा धन जमा है, मूर्तियों तक में रत्न भरे हैं तो उसने उन्हें लूटा और मूर्तियोंको तोड़ा । ज्ञान-मार्गके ठेकेदारोंने जिस तरहकी संकीर्णता फैलाई, उससे उन्हींका नहीं, न जाने कितनोंका जीवन दुःखमय बना । उड़ीसाका कालापहाड़ ब्राह्मण था, पर उसका एक मुसलमान लड़की से प्रेम हो गया । भला ब्राह्मण उसे कैसे स्वीकार कर सकते थे ? उन्होंने उसे जातिच्युत कर दिया । उसने लाख मिन्नतेंखुशामदें की, माफ़ी माँगी; पर कोई सुनवाई नहीं हुई । अन्तमें उसने कहा कि यदि मैं पापी होऊँ, तो जगन्नाथकी मूर्ति मुझे दण्ड देगी। पर मूर्ति क्या दण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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