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________________ ४१८ जैन धर्म और दर्शन उपाध्यायजी ने उपर्युक्त चार भूमिकावाली अहिंसा का चतुर्विध वाक्यार्थ के द्वारा निरूपण करके उसके उपसंहार में जो कुछ लिखा है वह वेदानुयायी मीमांसक और नैयायिक की अहिंसाविषयक विचारसरणि के साथ एक तरह की जैन विचारसरणि की तुलना मात्र है। अथवा यों कहना चाहिए कि वैदिक विचारसरणि के द्वारा जैन विचारसरणि का विश्लेषण ही उन्होंने किया है। जैसे मीमांसकों ने वेदविहित हिंसा को छोड़कर ही हिंसा में अनिष्टजनकत्व माना है वैसे ही उपाध्यायजी ने अन्त में स्वरूप हिंसा को छोड़ कर ही मात्र हेतुआत्मपरिणाम हिंसा में ही अनिष्टजनकत्व बतलाया है। ( ५ ) षट्स्थानपतितत्व और पूर्वगत गाथा [२७] श्रुतचर्चा के प्रसंग में अहिंसा के उत्सर्ग-अपवाद की विचारणा करने के बाद. उपाध्यायजी ने श्रुत से संबंध रखनेवाले अनेक ज्ञातव्य मुद्दों पर विचार प्रकट करते हुए षट्स्थान' के मुद्दे की भी शास्त्रीय चर्चा की है जिसका समर्थन हमारे जीवनगत अनुभव से ही होता रहता है। ___ एक ही अध्यापक से एक ग्रंथ ही पढ़नेवाले अनेक व्यक्तियों में, शब्द एवं अर्थ का ज्ञान समान होने पर भी उसके भावों व रहस्यों के परिज्ञान का जो तारतम्य देखा जाता है वह उन अधिकारियों की अान्तरिक शक्ति के तारतम्य का ही परिणाम होता है। इस अनुभव को चतुर्दश पूर्वधरों में लागू करके 'कल्पभाष्य के आधार पर उपाध्यायजी ने बतलाया है कि चतुर्दशपूर्वरूप श्रुत को समान रूप से पढ़े हुए अनेक व्यक्तियों में भी श्रुतगत भावों के सोचने की शक्ति का अनेकविध तारतम्य होता है जो उनकी ऊहापोह शक्ति के तारतम्य का ही परिणाम है। इस तारतम्य को शास्त्रकारों ने छह विभागों में बाँटा है जो षट्स्थान कहलाते हैं । भावों को जो सबसे अधिक जान सकता है वह श्रुतधर उत्कृष्ट कहलाता है। उसकी अपेक्षा से हीन, हीनतर, हीनतम रूप से छह कक्षाओं का वर्णन है । उत्कृष्ट ज्ञाता की अपेक्षा–१ अनन्तभागहीन, २ असंख्यातभागहीन, ३ संख्यातभागहीन, ४ संख्यातगुणहीन, ५ असंख्यातगुणहीन और ६ अनन्तगुणहीन-ये क्रमशः उतरती हुई छह कक्षाएँ हैं । इसी तरह सब से न्यून भावों को जाननेवाले की अपेक्षा-१ अनन्तभागअधिक, २ असंख्यातभागअधिक, ३ संख्यातभागअधिक, ४ संख्यातगुणअधिक, ५ असंख्यातगुणअधिक और ६ अनन्तगुणअधिक-ये क्रमशः चढ़ती हुई कक्षाएँ हैं। १ देखो, ज्ञानबिन्दु, टिप्पण पृ० ६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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