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जैन धर्म और दर्शन विस्तार से किया है । संघदास गणि ने२ 'बृहत्कल्पभाष्य' में उन छह विभागों के वर्णन के अलावा मतान्तर से पाँच विभागों का भी निर्देश किया है । जो कुछ हो; इतना तो निश्चित है कि जैन परंपरा में सत्र और अर्थ सिखाने के संबंध में एक निश्चित व्याख्यानविधि चिरकाल से प्रचलित रही। इसी व्याख्यानविधि को आचार्य हरिभद्र ने अपने दार्शनिक ज्ञान के नए प्रकाश में कुछ नवीन शब्दों में नवीनता के साथ विस्तार से वर्णन किया है । हरिभद्रसूरि की उक्ति में कई विशेषताएं हैं जिन्हें जैन वाङ्मय को सर्व प्रथम उन्हीं की देन कहनी चाहिए। उन्होंने उपदेशपद में अर्थानुगम के चिरप्रचलित चार भेदों को कुछ मीमांसा आदि दर्शनज्ञान का श्रोप देकर नए चार नामों के द्वारा निरूपण किया है। दोनों की तुलना इस प्रकार है१. प्राचीन परंपरा
२. हरिभद्रीय १ पदार्थ
१ पदार्थ २ पदविग्रह
२ वाक्यार्थ ३ चालना
३ महावाक्याथ ४ प्रत्यवस्थान
४ ऐदम्पर्यार्थ हरिभद्रीय विशेषता केवल नए नाम में ही नहीं है। उनकी ध्यान देने योग्य विशेषता तो चारों प्रकार के अर्थबोध का तरतम भाव समझाने के लिए दिये गए लौकिक तथा शास्त्रीय उदाहरणों में है। जैन परंपरा में अहिंसा, निग्रन्थत्व, दान और तप श्रादि का धर्म रूप से सर्वप्रथम स्थान है, अतएव जब एक तरफ से उन धर्मों के आचरण पर प्रात्यन्तिक भार दिया जाता है, तब दूसरी तरफ से उसमें कुछ अपवादों का या छूटों का रखना भी अनिवार्य रूप से प्राप्त हो जाता है। इस उत्सर्ग और अपवाद विधि की मर्यादा को लेकर आचार्य हरिभद्र ने उक्त चार प्रकार के अर्थबोधों का वर्णन किया है।
जैनधर्म की अहिंसा का स्वरूप अहिंसा के बारे में जैन धर्म का सामान्य नियम यह है कि किसी भी प्राणी का किसी भी प्रकार से घात न किया जाए। यह ‘पदार्थ हुआ। इस पर प्रश्न
१ देखो, विशेषावश्यकभाष्य गा० १००२ से । २ देखो, बृहत्कल्पभाष्य गा० ३०२ से । ३ देखो, उपदेशपद गा० ८५६-८८५। . .
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