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जैन धर्म और दर्शन देता। यही आवरण पूर्ण ज्ञान का प्रतिबन्धक होने से केवलज्ञानावरण कहलाता है। यह आवरण जैसे पूर्ण ज्ञान का प्रतिबन्ध करता है वैसे ही अपूर्ण ज्ञान का जनक भी बनता है। एक ही केवलज्ञानावरण को पूर्ण ज्ञान का तो प्रतिबन्धक और उसी समय अपूर्ण ज्ञान का जनक भी मानना चाहिए। ___ अपूर्ण ज्ञान के मति श्रुत आदि चार प्रकार हैं । और उन के मतिज्ञानावरण आदि चार आवरण भी पृथक-पृथक माने गए हैं। उन चार आवरणों के क्षयोपशम से ही मति आदि चार अपूर्ण ज्ञानों की उत्पत्ति मानी जाती है। तब यहां, उन अपूर्ण ज्ञानों की उत्पत्ति केवलज्ञानावरण से क्यों मानना ? ऐसा प्रश्न सहज है। उसका उत्तर उपाध्यायजी ने शास्त्रसम्मत [३] कह कर ही दिया है, फिर भी वह उत्तर उन की स्पष्ट सूझ का परिणाम है; क्योंकि इस उत्तर के द्वारा उपाध्यायजी ने जैन शास्त्र में चिर प्रचलित एक पक्षान्तर का सयुक्तिक निरास कर दिया है । वह पक्षान्तर ऐसा है कि-जब केवलज्ञानावरण के क्षय से मुक्त श्रात्मा में केवलज्ञान प्रकट होता है, तब मतिज्ञानावरण आदि चारों श्रावरण के क्षय से केवली में मति आदि चार ज्ञान भी क्यों न माने जाएँ ? इस प्रश्न के जवाब में, कोई एक पक्ष कहता है कि-केवली में मति आदि चार ज्ञान उत्पन्न तो होते हैं पर वे केवलज्ञान से अभिभूत होने के कारण कार्यकारी नहीं । इस चिरप्रचलित पक्ष को नियुक्तिक सिद्ध करने के लिए उपाध्यायजी ने एक नई युक्ति उपस्थित की है कि अपूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानावरण का ही कार्य है, चाहे उस अपूर्ण ज्ञान का तारतम्य या वैविध्य मतिज्ञानावरण आदि शेष चार आवरणों के क्षयोपशम वैविध्य का कार्य क्यों न हो, पर अपूर्ण ज्ञानावस्था मात्र पूर्ण ज्ञानावस्था के प्रतिबन्धक केवलज्ञानावरण के सिवाय कभी सम्भव ही नहीं। अतएव केवली में जब केवलज्ञानावरण नहीं है तब तजन्य कोई भी मति आदि अपूर्ण ज्ञान केवली में हो ही कैसे सकते हैं सचमुच उपाध्यायजी की यह युक्ति शास्त्रानुकूल होने पर भी उनके पहले किसी ने इस तरह स्पष्ट रूप से सुझाई नहीं है।
३. [४ ] सघन मेघ और सूर्य प्रकाश के साथ केवलज्ञानावरण और चेतनाशक्ति की शास्त्रप्रसिद्ध तुलना के द्वारा उपाध्यायजी ने ज्ञानावरण कर्म के स्वरूप के बारे में दो बातें खास सूचित की हैं। एक तो यह, कि आवरण कर्म एक प्रकार का द्रव्य है; और दूसरी यह, कि वह द्रव्य कितना ही निबिड-उत्कट क्यों न हो, फिर भी वह अति स्वच्छ अभ्र जैसा होने से अपने आवार्य ज्ञान गुण को सर्वथा आत कर नहीं सकता ।
कर्म के स्वरूप के विषय में भारतीय चिन्तकों की दो परम्पराएँ हैं। बौद्ध, न्याय दर्शन आदि की एक और सांख्य, वेदांत आदि की दूसरी है । बौद्ध दर्शन
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