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________________ जैन धर्म और दर्शन ___अबतक जैन परम्परा ने ज्ञान के विचारक्षेत्र में जो अनेकमुखी विकास प्रास किया था और जो विशालप्रमाण ग्रन्थराशि पैदा की थी एवं जो मानसिक स्वातंत्र्य की उच्च तार्किक भूमिका प्राप्त की थी, वह सब तो उपाध्याय यशोविजयज को विरासत में मिली ही थी, पर साथ ही में उन्हें एक ऐसी सुविधा भी प्राप्त हुई थी जो उनके पहले किसी जैन विद्वान् को न मिली थी। यह सुविधा है उदयन तथा गंगेशप्रणीत नव्य न्यायशास्त्र के अभ्यास का साक्षात् विद्याधाम 'काशी में अवसर मिलना । इस सुविधा का उपाध्यायजी की जिज्ञासा और प्रज्ञा ने कैसा और कितना उपयोग किया इसका पूरा खयाल तो उसी को आ सकता है जिसने उनकी सब कृतियों का थोड़ा सा भी अध्ययन किया हो। नव्य न्याय के उपरान्त उपाध्यायजी ने उस समय तक के अति प्रसिद्ध और विकसित पूर्वमीमांसा तथा वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का भी अच्छा परिशीलन किया। प्रागमिक और दार्शनिक ज्ञान की पूर्वकालीन तथा समकालीन समस्त विचार सामग्री को आत्मसात् करने के बाद उपाध्यायजी ने ज्ञान के निरूपणक्षेत्र में पदार्पण किया । ____ उपाध्यायजी की मुख्यतया ज्ञाननिरूपक दो कृतियाँ हैं। एक 'जैनतकभाषा' और दूसरी प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु' । पहली कृति का विषय यद्यपि ज्ञान ही है तथापि उसमें उसके नामानुसार तर्कप्रणाली या प्रमाणपद्धति मुख्य है। तर्कभाषा का मुख्य उपादान 'विशेषावश्यकभाष्य' है, पर वह अकलंक के 'लघीयस्त्रय' तथा 'प्रमाणसंग्रह' का परिष्कृत किन्तु नवीन अनुकरण संस्करण भी है। प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु में प्रतिपाद्य रूपसे उपाध्यायजी ने पञ्चविध ज्ञान वाला आगमिक विषय ही चुना है जिसमें उन्होंने पूर्वकाल में विकसित प्रमाणप्रद्धति को कहीं १ देखो जैनतर्कभाषा की प्रशिस्त-'पूर्व न्यायविशारदत्वविरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः । २ लघीयस्त्रय में तृतीय प्रवचनप्रवेश में क्रमशः प्रमाण, नय और निक्षेप का वर्णन अकलंक ने किया है। वैसे ही प्रमाणसंग्रह के अंतिम नवम प्रस्ताव में भी उन्हीं तीन विषयों का संक्षेप में वर्णन है। लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह में अन्यत्र प्रमाण और नय का विस्तृत वर्णन तो है ही, फिर भी उन दोनों ग्रन्थों के अंतिम प्रस्ताव में प्रमाण, नय और निक्षेप की एक साथ संक्षिप्त चर्चा उन्होंने कर दी है जिससे स्पष्टतया उन तीनों विषयों का पारस्परिक भेद समझ में आ जाए। यशोविजयजी ने अपनी तर्कभाषा को, इसी का अनुकरण करके, प्रमाण, नय, और निक्षेप इन तीन परिच्छेदों में विभक्त किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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