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________________ ज्ञान बिन्दुपरिचय ३८७ विकसित भूमिका का अवलम्बन करके शुरू हुआ। इस प्रयत्न में न केवल श्रकलंक के विद्याशिष्य-प्रशिष्य विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र वादिराज आदि दिगम्बर आचार्य ही झुके; किन्तु अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य आदि अनेक श्वेताम्बर आचार्यों ने भी कलंकीय तार्किक भूमिक्त को विस्तृत किया । इस तर्कप्रधान जैन युग ने जैन मानस में एक ऐसा परिवर्तन पैदा किया जो पूर्वकालीन रूढिबद्धता को देखते हुए आश्चर्यजनक कहा जा सकता है । संभवतः सिद्धसेन दिवाकर के बिलकुल नवीन सूचनों के कारण उनके विरुद्ध जो जैन परंपरा में पूर्वग्रह था वह दसवीं शताब्दी से स्पष्ट रूप में हटने और घटने लगा । हम देखते हैं कि सिद्धसेन की कृति रूप जिस न्यायावतार परजो कि सचमुच जैन परंपरा का एक छोटा किन्तु मौलिक ग्रन्थ है— करीब चार शताब्दी तक किसी ने टीकादि नहीं रची थी, उस न्यायावतार की ओर जैन विद्वानों का ध्यान व गया । सिद्धर्षि ने दसवीं शताब्दी में उस पर व्याख्या लिख कर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई और ग्यारहवीं शताब्दी में वादिवैताल शान्तिसूरि ने उस को वह स्थान दिया जो भत्तृहरि ने 'व्याकरणमहाभाष्य' को, कुमारिल ने 'शावर भाष्य' को, धर्मकीर्त्तिने 'प्रमाणसमुच्चय' को और विद्यानन्द ने 'तत्त्वार्थसूत्र' आदि को दिया था । शान्तिसूरि ने न्यायावतार की प्रथम कारिका पर सटीक पद्यबन्ध 'वार्त्तिक' रचा और साथ ही उसमें उन्होंने यत्र-तत्र कलंक के विचारों का खण्डन भी किया । इस शास्त्र-रचना प्रचुर युग में न्यायावतार ने दूसरे भी एक जैन तार्किक का ध्यान अपनी ओर खींचा । ग्यारहवीं शताब्दी के जिनेश्वरसूरि ने न्यायावतार की प्रथम ही कारिका को ले कर उस पर एक पद्यबन्ध 'प्रमालक्षण' नामक ग्रन्थ रचा और उसकी व्याख्या भी स्वयं उन्होंने की । यह प्रयत्न दिङनाग के 'प्रमाणसमुच्चय' की प्रथम कारिका के ऊपर धर्मकीर्त्ति के द्वारा रचे गए सटीक पद्यबन्ध 'प्रमाणवार्त्तिक' का; तथा पूज्यपाद 'की 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रथम मंगल श्लोक के ऊपर विद्यानन्द के द्वारा रची गई सटीक 'आप्तपरीक्षा' का अनुकरण है । अब तक में तर्क और दर्शन के अभ्यास ने जैन विचारकों के मानस पर अमुक अंश में स्वतन्त्र विचार प्रकट करने के बीज ठीक-ठीक बो दिये थे । यही कारण है कि एक ही न्यायावतार पर लिखने वाले उक्त तीनों विद्वानों की विचारप्रणाली अनेक जगह भिन्न-भिन्न देखी जाती है । १ - जैनतर्कवार्तिक, पृ० प्रस्तावना पृ० ८२ । Jain Education International १३२; तथा देखो न्यायकुमुदचंद्र - प्रथमभाग, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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