SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 719
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणशास्त्र को देन ...३६६ - आदि का ही आकर्षक प्रभाव पड़ा हुआ जान पड़ता है। अतएव यह अधूरे रूप में उपलब्ध प्रमाणमीमांसा भी ऐतिहासिक दृष्टि से जैन तर्क साहित्य में तथा भारतीय दर्शन साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखती है। भारतीय प्रमाणशास्त्र में 'प्रमाण मीमांसा' का स्थान भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाण मीमांसा का तत्त्वज्ञान की दृष्टि से क्या स्थान है इसे ठीक २ समझने के लिए मुख्यतया दो प्रश्नों पर विचार करना ही होगा । जैन तार्किकों की भारतीय प्रमाणशास्त्र को क्या देन है जो प्रमाण मीमांसा में सन्निविष्ट हुई हो और जिसको कि बिना जाने किसी तरह भारतीय प्रमाणशास्त्र का पूरा अध्ययन हो ही नहीं सकता। पूर्वाचार्यों की उस देन में हेमचन्द्र ने अपनी ओर से भी कुछ विशेष अर्पण किया है या नहीं और किया है तो किन मुद्दों पर ? (१) जैनाचार्यों की भारतीय प्रमाणशास्त्र को देन १-अनेकांतवाद -- .. सबसे पहली और सबसे श्रेष्ट सब देनों की चाबी रूप जैनाचार्यों की मुख्य देन है अनेकांत तथा नयवाद का शास्त्रीय निरूपण ।' तत्त्व-चिंतन में अनेकांतदृष्टि का व्यापक उपयोग करके जैन तार्किकों ने अपने आगमिक प्रमेयों तथा सर्वसाधारण न्याय के प्रमेयों में से जो-जो मंतव्य तार्किक दृष्टि से स्थिर किये और प्रमाण शास्त्र में जिनका निरूपण किया उनमें से थोड़े ऐसे मंतव्यों का भी निर्देश उदाहरण के तौर पर यहाँ कर देना जरूरी है जो एक मात्र जैन तार्किकों की विशेषता दरसाने वाले हैंप्रमाण विभाग, प्रत्यक्ष का तत्त्विकत्व, इन्द्रियज्ञान का व्यापारक्रम, परोक्ष के प्रकार, हेतु का रूप, अवयवों की प्रायोगिक व्यवस्था, कथा का स्वरूप, निग्रहस्थान या जयपराजय व्यवस्था, प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप, सर्वज्ञत्वसमर्थन आदि । २-प्रमाण विभाग जैन परंपरा का प्रमाणविषयक मुख्य विभाग दो दृष्टियों से अन्य परंपराओं १ 'अनेकांतवाद' का इस प्रसंग में जो विस्तृत ऊहापोह किया गया है उसे अन्यत्र मुद्रित किया गया है। देखो पृ० १६१-१७३ । अतः यहाँ उसकी पुनरावृत्ति नहीं की गई-संपादक। २-प्रमाण मीमांसा १-१-१० तथा टिप्पण पृ० १६ पं० २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy