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________________ १६८ __ जैन धर्म और दर्शन अति महत्त्व का होते हुए भी एक एक विषय की ही चर्चा करता है या बहुत ही संक्षिप्त है। दूसरा भाग ऐसा है कि जो है तो सर्व विषय संग्राही पर वह उत्तरोत्तर इतना अधिक विस्तृत तथा शब्द क्लिष्ट है कि जो सर्वसाधारण के अभ्यास का विषय बन नहीं सकता। इस विचार से हेमचंद्र ने एक ऐसा प्रमाण विषयक ग्रंथ बनाना चाहा जो कि उनके समय तक चर्चित एक भी दार्शनिक विषय की चर्चा से खाली न रहे और फिर भी वह पाठ्यक्रम योग्य मध्यम कद का हो। इसी दृष्टि में से प्रमाणमीमांसा का जन्म हुआ। इसमें हेमचंद्र ने पूर्ववर्ती आगमिकतार्किक सभी जैन मंतव्यों को विचार व मनन से पचाकर अपने ढंग की विशद व अपुनरुक्त सूत्रशैली तथा सर्वसंग्राहिणी विशदतम स्वोपज्ञवृत्ति में सन्निविष्ट किया। यद्यपि पूर्ववती अनेक जैन ग्रंथों का सुसम्बद्ध दोहन इस मीमांसा में है जो हिन्दी टिप्पणियों में की गई तुलना से स्पष्ट हो जाता है फिर भी उसी अधूरी तुलना के आधार से यहाँ यह भी कह देना समुचित है कि प्रस्तुत ग्रंथ के निर्माण में हेमचंद्र ने प्रधानतया किन किन ग्रंथों या ग्रन्थकारों का आश्रय लिया है। नियुक्ति, विशेषावश्यक भाष्य तथा तत्त्वार्थ जैसे आगमिक ग्रन्थ तथा सिद्धसेन, समंतभद्र, अकलङ्क, माणिक्यनंदी और विद्यानंद को प्राय; समस्त कृतियाँ इसकी उपादन सामग्री बनी हैं। प्रभाचंद्र के मार्तण्ड का भी इसमें पूरा असर है। अगर अनंतवीर्य सचमुच हेमचंद्र के पूर्ववर्ती या समकालीन वृद्ध रहे होंगे तो यह भी सुनिश्चित है कि इस ग्रन्थ की रचना में उनकी छोटी सी प्रमेयरत्नमाला का विशेष उपयोग हुआ है। वादिदेवसरि की कृति का भी उपयोग इसमें स्पष्ट है फिर भी जैन तार्किकों में से अकलंक और माणिक्यनंदी का ही मार्गानुगमन प्रधानतया देखा जाता है । उपयुक्त जैन ग्रंथों में आए हुए ब्राह्मण बौद्ध ग्रंथों का भी उपयोग हो जाना स्वाभाविक ही था। फिर भी प्रमाण मीमांसा के सक्ष्म अवलोकन तथा तुलनात्मक अभ्यास से यह भी पता चल जाता है कि हेमचंद्र ने बौद्ध ब्राह्मण परंपरा के किन किन विद्वानों की कृतियों का अध्ययन व परिशीलन विशेषरूप से किया था जो प्रमाण मीमांसा में उपयुक्त हुआ हो। दिङ्नाग, खासकर धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट और शांतरक्षित ये बौद्ध तार्किक इनके अध्ययन के विषय अवश्य रहे हैं । कणाद, भासर्वज्ञ, व्योमशिव, श्रीधर, अक्षपाद, वात्स्यायन, उद्योतकर, जयंत, वाचस्पति मिश्र, शबर, प्रभाकर, कुमारिल आदि जुदी २ वैदिक परंपराओं के प्रसिद्ध विद्वानों की सब कृतियाँ प्रायः इनके अध्ययन की विषय रही। चार्वाक एकदेशीय जयराशि भट्ट का तत्त्वोपप्लव भी इनकी दृष्टि के बाहर नहीं था। यह सब होते हुए भी हेमचन्द्र की भाषा तथा निरूपण शैली पर धर्मकीति, धर्मोत्तर, अचेंट, भासर्वज्ञ, वात्स्यायन, जयंत, वाचस्पति, कुमारिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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