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जैन धर्म और दर्शन
अर्थात् दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध करना, यह एक प्रकार से विरोध है । इस संबन्ध में विचार तथा नय-दृष्टि से विरोध का परिहार । पृ०-१४६ ।
चतुर्दर्शन के योगों में से औदारिक मिश्र योग का वर्जन किया है, सो किस तरह सम्भव है ? इस विषय पर विचार । १०-१५४ ।
केवलिसमुद्घात संबन्धी अनेक विषयों का वर्णन, उपनिषदों में तथा गीता में जो आत्मा की व्यापकता का वर्णन है, उसका जैन-दृष्टि से मिलान और केवलिसमुद्घातजैसी क्रिया का वर्णन अन्य किस दर्शन में है ? इसकी सूचना । पु०-१५५ ।
जैनदर्शन में तथा जैनेतर-दर्शन में काल का स्परूप किस-किस प्रकार का माना है ? तथा उसका वास्तविक स्वरूप कैसा मानना चाहिए ? इसका प्रमाणपूर्वक विचार । पृ०-१५७ ।
छह लेश्या का संबन्ध चार गुणस्थान तक मानना चाहिए या छह गुण-स्थान तक ? इस संबन्ध में जो पक्ष हैं, उनका श्राशय तथा शुभ भावलेश्या के समय अशुभ द्रव्य लेश्या और अशुभ द्रव्य लेश्या के समय शुभ भावलेश्या, इस प्रकार लेश्यात्रों की विषमता किन जीवों में होती है ? इत्यादि विचार | पृ०१०२, नोट ।
__ कर्मबन्ध के हेतुओं की भिन्न-भिन्न संख्या तथा उसके संबन्ध में कुछ विशेष ऊहापोह । पृ०-१७४, नोट ।
आभिग्रहिक अनाभिग्रहिक और आभिनिवेशिक-भिथ्यात्व का शास्त्रीय खुलासा । प०-१७६, नोट ।।
तीर्थकरनामकर्म और आहारक-द्विक, इन तीन प्रकृतियों के बन्ध को कहीं कषाय-हेतुक कहा है और कहीं तीर्थकरनामकर्म के बन्ध को सम्यक्त्व-हेतुक तथा आहारक द्विक के बन्ध को संयम-हेतुक, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा । पृ०-१८१, नोट ।
छह भाव और उनके भेदों का वर्णन अन्यत्र कहाँ-कहाँ मिलता है ? इसकी सूचना । प०-१६६, नोट । ___ मति आदि अज्ञानों को कहीं क्षायोपशमिक और कहीं श्रौदयिक कहा है, सो किस अपेक्षा से ? इसका खुलासा । प० १६६, नोट ।
संख्या का विचार अन्य कहाँ-कहाँ और किस-किस प्रकार है ? इसका निर्देश । पृ०-२०८, नोट ।
युगपद् तथा भिन्न-भिन्न समय में एक या अनेक जीवाश्रित पाए जानेवाले भाव और अनेक जीवों की अपेक्षा से गुणस्थानों में भावोंक उत्तर भेद । पृ०-२३१ ।
[चौथा कर्मग्रन्थ
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