________________
३४२
- जैन धर्म और दर्शन : गुणस्थान में उपयोग की संख्या कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में तुल्य है। पृष्ठ-१६७, नोट। - एकेन्द्रिय में सासादनभाव मानने और न माननेवाले, ऐसे जो दो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, दिगम्बर-ग्रन्थों में भी हैं। पृष्ठ-१७१, नोट । - श्वेताम्बर-ग्रन्थों में जो कहीं कर्मबन्ध के चार हेतु, कहीं दो हेतु और कहीं पाँच हेतु कहे हुए हैं; दिगम्बर ग्रन्थों में भी वे सब वर्णित हैं । पृष्ठ-१७४,
नोट।
बन्ध-हेतुओं के उत्तर भेद आदि दोनों संप्रदाय में समान हैं। पृष्ठ-१७५, नोट । - सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का विचार दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में है। पृष्ठ-१८१, नोट।
एक संख्या के अर्थ में रूप शब्द दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में मिलता है । पृष्ठ-२१८, नोट। .. कर्मग्रन्थ में वर्णित दस तथा छह क्षेप त्रिलोकसार में भी हैं। पृष्ठ-२२१, नोट।
उत्तर प्रकृतियों के मूल बन्ध-हेतु का विचार जो सर्वार्थसिद्धि में है, वह पञ्चसंग्रह में किये हुए विचार से कुछ भिन्न-सा होने पर भी वस्तुतः उसके समान ही है । पृष्ठ-२२७ ।
कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह में एक जीवाश्रित भावों का जो विचार है, गोम्मटसा में बहुत अंशों में उसके समान ही वर्णन है । पृष्ठ-२२६ ।
असमान मन्तव्य
श्वेताम्बर-ग्रन्थों में तेजःकाय के वैक्रिय शरीर का कथन नहीं है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में है। पृष्ठ-१६, नोट। .. श्वेताम्बर संप्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर संप्रदाय में संशी-असंज्ञी का व्यवहार कुछ भिन्न है। तथा श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर-ग्रंथो में नहीं है । पृष्ठ-३६ । . .... श्वेताम्बर-शास्त्र-प्रसिद्ध करण पर्याप्त शब्द के स्थान में दिगम्बर-शास्त्र में निवृत्त्यपर्याप्त शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की कुछ भिन्न है। पृष्ठ-४१) . श्वेताम्बर-ग्रंथों में केवलज्ञान तथा केवलदर्शन का क्रमभावित्व, सहभावित्व
और अभेद ये तीन पक्ष हैं, परन्तु दिगम्बर-ग्रंथों में सहभाविप्व का एक ही पक्ष है। पृष्ठ-४३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org