SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 639
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग विचारणा १६ योग का आरम्भ कब से होता है ? आत्मा अनादि काल से जन्म-मृत्यु के प्रवाह में पड़ा है और उसमें नाना प्रकार के व्यापारों को करता रहता है । इसलिए यह प्रश्न पैदा होता है कि उसके व्यापार को कब से योगस्वरूप माना जाए ? इसका उत्तर शास्त्र में ' यह दिया गया है कि जब तक आत्मा मिथ्यात्व से व्याप्त बुद्धिवाला, अतएव दिङ्मूढ की तरह उल्टी दिशा में गति करनेवाला अर्थात् आस्था - लक्ष्य से भ्रष्ट हो, तब तक उसका व्यापार प्रणिधान आदि शुभ योग रहित होने के कारण योग नहीं कहा जा सकता । इसके विपरीत जब से मिथ्यात्व का तिमिर कम होने के कारण आत्मा की भ्रान्ति मिटने लगती है और उसकी गति सीधी अर्थात् सन्मार्ग के श्रभिमुख हो जाती है, तभी से उसके व्यापार को प्रणिधान यदि शुभ भाव सहित होने के कारण 'योग' संज्ञा दी जा सकती है । सारांश यह है कि आत्मा के अनादि सांसारिक काल के दो हिस्से हो जाते हैं। एक चरमपुद्गलपरावर्त्त और दूसरा चरम पुद्गल पर्वत कहा जाता है ! चरम पुद्गलपरार्वत अनादि सांसारिक काल का आखिरी और बहुत छोटा अंश २ है । अचरमपुद्गलपरावर्त्त उसका बहुत बड़ा भाग है; क्योंकि चरमपुद्गलपरावर्त को बाद करके अनादि सांसारिक काल, जो अनंतकालचक्र - परिमाण है, वह सब चरम पुद्गलपरावर्त कहलाता है । आत्मा का सांसारिक काल, जब चरमपुद्गलपरावर्त-परिमाण बाकी रहता है, तब उसके ऊपर से मिथ्यात्वमोह का आवरण हटने लगता है । अतएव उसके परिणाम निर्मल होने लगते हैं । और क्रिया भी निर्मल भावपूर्वक होती है । ऐसी क्रिया से भाव-शुद्धि और भी बढ़ती है । इस प्रकार उत्तरोत्तर भाव-शुद्धि बढ़ते जाने के कारण चरम पुद्गलपरावर्तकालीन धर्म-व्यापार को योग कहा है । अचरम पुद्गलपरावर्त कालीन व्यापार न तो शुभ- भावपूर्वक होता है और न शुभ-भाव का कारण ही होता है । इसलिए १ 'मुख्यत्वं चांतरङ्गत्वात्फलाक्षेपाच्च दर्शितम् । चरमे पुद्गलावर्ते यत एतस्य संभवः || २ || न सन्मार्गाभिमुख्यं स्यादावर्तेषु परेषु तु । मिथ्यात्वाच्छन्नबुद्धीनां दिङ्मूढानामिवाङ्गिनाम् ||३|| Jain Education International २ चरमावर्तिनो जन्तोः, सिद्धेरासन्नता ध्रुवम् । भूयांसोऽमी व्यतिक्रान्तास्तेष्वेको बिन्दुरम्बुधौ ॥२८॥ २८६ -- योगलक्षणद्वात्रिंशिका | -मुक्त्यद्वेषप्राधान्यद्वात्रिंशिका | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy