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________________ २८० ... जैन धर्म और दर्शन निर्वाण' प्रकरण में अज्ञान के फलरूप से कही गई है। (२) योग-वासिष्ठ निर्वाण प्रकरण पूर्वार्धमें अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का २ नाश, यह क्रम जैसा वर्णित है, वही क्रम जैनशास्त्र में मिथ्याज्ञान और सम्यक् ज्ञान के निरूपणद्वारा जगह-जगह वर्णित है। (३) योगवासिष्ठ के उक्त प्रकरण में 3 ही जो अविद्या का विद्या से और विद्या का विचार से नाश बतलाया है, वह जैनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिकज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। (४) जैनशास्त्र में मुख्यतया मोह को ही बन्ध का-संसार का हेतु माना है। योगवासिष्ठ ४ में वही बात रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो दृश्य के अस्तित्व को बन्ध का कारण कहा है; उसका १. 'अज्ञानात्प्रसृता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः। यस्मिंस्तिष्ठन्ति राजन्ते, विशन्ति विलसन्ति च ॥५३॥' 'आपातमात्रमधुरत्वमनर्थसत्त्वमाद्यन्तवत्त्वमखिलस्थितिभङ्गरस्वम् । अज्ञानशाखिन इति प्रसृतानि राम नानाकृतीनि विपुलानि फलानि तानि'' ॥६१॥ पूर्वार्द्ध, सर्ग ६, २. 'जन्मपर्वाहिना रन्ध्रा विनाशच्छिद्रचञ्चुरा । भोगाभोगरसापूर्णा, विचारैकघुणक्षता ॥११॥' सर्ग ८। ३. 'मिथःस्वान्ते तयोरन्तश्छायातपनयोरिव । अविद्यायां विलीनायां क्षीणे द्वे एव कल्पने ॥२३॥ एते राघव लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यते । अविद्यासंक्षयात् क्षीणो विद्यापक्षोऽपि राघव ॥२४॥ सर्ग है। ४. 'अविद्या संसतिवन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि, यस्याः सकलवेदिभिः ॥२०॥' 'दृष्टुद्रश्यस्य सत्ताऽङ्गबन्ध इत्यभिधीयते । द्रष्टा दृश्यबलाबद्धो, दृश्याऽभावे विमुच्यते ॥२२॥' -उत्पत्ति-प्रकरण, सर्ग १ । 'तस्माचित्तविकल्पस्थपिशाचो बालकं यथा । विनिहन्त्येवमेषान्तर्दृष्टारं दृश्यरूपिका ॥३८॥' --उत्पत्ति प्र० सर्ग ३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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