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________________ २३६ 'कर्मविपाक' 'कम्मविवागं समासो वुच्छं' तथा अन्त में 'इअ कम्मविवागोऽयं' इस कथन से स्पष्ट ही कर दिया है । परन्तु दूसरे नाम का उल्लेख कहीं भी नहीं किया है। वह नाम केवल इसलिए प्रचलित हो गया है कि कर्मस्तव अादि अन्य कर्मविषयक ग्रन्थों से यह पहला है; इसके बिना पढ़े कर्मस्तव आदि अगले प्रकरणों में प्रवेश ही नहीं हो सकता | पिछला नाम इतना प्रसिद्ध है कि पढ़ने-पढ़ाने वाले तथा अन्य लोग प्रायः उसी नाम से व्यवहार करते हैं । 'पहला कर्मग्रन्थ', इस प्रचलित नाम से मूल नाम यहाँ तक अप्रसिद्ध सा हो गया है कि कर्मविपाक कहने से बहुत से लोग कहनेवाले का आशय ही नहीं समझते । यह बात इस प्रकरण के विषय में ही नहीं, बल्कि कर्मस्तव आदि अग्रिम प्रकरणों के विषय में भी बराबर लागू पड़ती है । अर्थात् कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, षडशीतिक, शतक और सप्ततिका कहने से क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे प्रकरण का मतलब बहुत कम लोग समझेंगे; परन्तु दूसरा. तीसरा, चौथा, पाँचवाँ और छठा कर्मग्रन्थ कहने से सब लोग कहनेवाले का भाव समझ लेंगे। विषय- इस ग्रन्थ का विषय कर्मतत्त्व है, पर इसमें कर्म से संबन्ध रखने वाली अनेक बातों पर विचार न करके प्रकृति-अंश पर ही प्रधानतया विचार किया है, अर्थात् कर्म की सब प्रकृतियों का विपाकाही इसमें मुख्यतया वर्णन किया गया है । इसी अभिप्राय से इसका नाम भी 'कर्मविपाक' रक्खा गया है। वर्णन क्रम- इस ग्रन्थ में सबसे पहले यह दिखाया है कि कर्मबन्ध स्वाभाविक नहीं, किन्तु सहेतुक है । इसके बाद कर्म का स्वरूप परिपूर्ण बताने के लिए उसे चार अंशों में विभाजित किया है-(१) प्रकृति, (२) स्थिति, (३) रस और (४) प्रदेश । इसके बाद आठ प्रकृतियों के नाम और उनके उत्तर भेदों की संख्या बताई गई है । अनन्तर ज्ञानावरणीयकर्म के स्वरूप को दृष्टान्त, कार्य और कारण द्वारा दिखलाने के लिए प्रारम्भ में ग्रन्थकार ने ज्ञान का निरूपण किया है । ज्ञान के पाँच भेदों को और उनके अवान्तर भेदों को संक्षेप में, परन्तु तत्त्वरूप से दिखाया है । ज्ञान का निरूपण करके उसके प्रावरणभूत कर्म का दृष्टान्त द्वारा उद्घाटन (खुलासा) किया है । अनन्तर दर्शनावरण कर्म को दृष्टान्त द्वारा समझाया है । पीछे उसके भेदों को दिखलाते हुए दर्शन शब्द का अर्थ बतलाया है। दर्शनावरणीय कर्म के भेदों में पाँच प्रकार की निद्रात्रों का सर्वानुभवसिद्ध स्वरूप, संक्षेप में, पर बड़ी मनोरंजकता से वर्णन किया है । इसके बाद क्रम से सुख-दुःखजनक वेदनीयकर्म, सद्विश्वास और सञ्चारित्र के प्रतिबन्धक मोहनीयकर्म, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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