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________________ २३८. जैन धर्म और दर्शन को किस तरह नीचे पटक देते हैं ? कौन-कौन कर्म, बन्ध की व उदय की अपेक्षा आपस में विरोधी हैं ? किस कर्म का बन्ध किस अवस्था में अवश्यम्भावी और किस अवस्था में अनियत है ? किस कर्म का विपाक किस हालत तक नियत और किस हालत में अनियत है ? आत्मसंबद्ध अतीन्द्रिय कर्मराज किस प्रकार की आकर्षण शक्ति से स्थूल पुद्गलों को खींचा करता है और उनके द्वारा शरीर, मन, सूक्ष्मशरीर आदि का निर्माण किया करता है ? इत्यादि संख्यातीत प्रश्न, जो कर्म से संबन्ध रखते हैं, उनका सयुक्तिक, विस्तृत व विशद खुलासा जैन कर्मसाहित्य के सिवाय अन्य किसी भी दर्शन के साहित्य से नहीं किया जा सकता। यही कर्म - -तत्त्व के विषय में जैनदर्शन की विशेषता है । 'कर्मविपाक' ग्रन्थ का परिचय संसार में जितने प्रतिष्ठित सम्प्रदाय ( धर्मसंस्थाएँ ) हैं उन सबका साहित्य दो विभागों में विभाजित है - ( १ ) तत्त्वज्ञान और (२) आचार व क्रिया । ये दोनों विभाग एक दूसरे से बिलकुल ही अलग नहीं हैं। उनका संबन्ध वैसा ही है जैसा शरीर में नेत्र और हाथ-पैर आदि अन्य अवयवों का । जैनसम्प्रदाय का साहित्य भी तत्त्वज्ञान और प्रचार इन दोनों विभागों में बँटा हुआ । यह ग्रन्थ पहले विभाग से संबन्ध रखता है, अर्थात् इसमें विधिनिषेधात्मक - क्रिया का वर्णन नहीं है, किन्तु इसमें वर्णन है तत्त्व का । यों तो जैनदर्शन में अनेक तत्त्वों पर विविध दृष्टि से विचार किया है पर इस ग्रन्थ में उन सब का वर्णन नहीं है । इसमें प्रधानतया कर्मतत्त्व का वर्णन है । आत्मवादी सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म को मानते ही हैं, पर जैन दर्शन इस संबन्ध में अपनी असाधारण विशेषता रखता है अथवा यों कहिए कि कर्मतत्त्व के विचार प्रदेश में जैनदर्शन अपना सानी नहीं रखता, इसलिए इस ग्रन्थ को जैनदर्शन की विशेषता का या जैन दर्शन के विचारणीय तत्त्व का ग्रन्थ कहना उचित है । विशेष परिचय इस ग्रन्थ का अधिक परिचय करने के लिए इसके नाम, विषय, वर्णनक्रम, रचना का मूलाधार, परिमाण, भाषा, कर्त्ता आदि बातों की ओर ध्यान देना जरूरी है । - नाम - इस ग्रन्थ के 'कर्मविपाक' और 'प्रथम कर्मग्रन्थ' इन दो नामों में से पहला नाम तो विषयानुरूप है तथा उसका उल्लेख स्वयं ग्रन्थकार ने यदि में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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