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आवश्यक क्रिया
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सूत्र भी रचे हैं, जिससे कि अधिकारी लोग खास नियत समय पर उन सूत्रों के द्वारा 'आवश्यक-क्रिया' को याद कर अपने आध्यात्मिक जीवन पर दृष्टिपात करें। अतएव 'आवश्यक क्रिया' के दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, आदि पाँच भेद प्रसिद्ध हैं। 'आवश्यक-क्रिया' के इस काल-कृत विभाग के अनुसार उसके सूत्रों में भी यत्र-तत्र भेद आ जाता है। अब देखना यह है कि इस समय जो 'पावश्यक-सूत्र' है, वह कब बना है और उसके रचयिता कौन हैं ?
पहले प्रश्न का उत्तर यह है कि 'अावश्यक-सूत्र' ईस्वी सन् से पूर्व पाँचवीं शताब्दि से लेकर चौथी शताब्दि के प्रथम पाद तक में किसी समय रचा हुआ होना चाहिए। इसका कारण यह है कि ईस्वी सन् से पूर्व पाँच सौ छब्बीसवें वर्ष में भगवान् महावीर का निर्माण हुआ । वीर-निर्वाण के बीस वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी का निर्वाण हुआ। सुधर्मा स्वामी गणधर थे। 'आवश्यक-सूत्र' न तो तीर्थंकर की ही कृति है और न गणधर की। तीर्थंकर की कृति इसलिए नहीं कि वे अर्थ का उपदेशमात्र करते हैं, सूत्र नहीं रचते । गणधर सूत्र रचते हैं सही, पर 'आवश्यक-सूत्र' गणधर-रचित न होने का कारण यह कि उस सूत्र की गणना अङ्गबाह्यश्रुत में है। अङ्ग बाह्यश्रुत का लक्षण श्रा उमास्वाती ने अपने तत्त्वार्थ-भाष्य में यह किया है कि जो श्रत, गणधर की कृति नहीं है और जिसकी रचना गणधर के बाद के परम मेधावी प्राचार्यों ने की है, वह 'अङ्गबाह्यश्रुत' कहलाता है। १
ऐसा लक्षण करके उसका उदाहरण देते समय उन्होंने सबसे पहले सामायिक आदि छह 'आवश्यकों' का उल्लेख किया है और इसके बाद दशवैकालिक
आदि अन्य सूत्रों का। यह ध्यान रखना चाहिए दशवैकालिक, श्री शय्यंभव सूरि जो सुधर्मा स्वामी के बाद तीसरे प्राचार्य हुए, उनकी कृति है। अङ्गबाह्य होने के कारण 'श्रावश्यक-सूत्र', गणधर श्री सुधर्मा स्वामी के बाद के किसी आचार्य का रचित माना जाना चाहिए। इस तरह उसके रचना के काल की
१- गणधरानन्तर्यादिभिस्त्वत्यन्तविशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिशक्तिभिराचार्य: कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाम यत्प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति ।
--तत्त्वाथे-अध्याय१, सूत्र २० का भाष्य । २-अङ्गबाह्यमनेकविधम् । तद्यथा-सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दनं प्रति
क्रमणं कायव्युत्सर्गः प्रत्याख्यानं दशवैकालिकमुत्तराध्यायाः दशाः कल्पव्यवहारौ निशीथमृषिभाषितान्येवमादि ।
-तत्त्वार्थ-श्र १, सूत्र २० का भाष्य ।
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