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जैन धर्म और दर्शन सर्व-श्रेष्ठ धर्म 'जरथोश्ती' है। मैं यह बात मान लेता हूँ कि 'जरथोश्ती' धर्म ही सब कुछ पाने का कारण है।
-खो० अ०, पृ०६। ___(४) अभिमान, गर्व, मरे हुए लोगों की निन्दा करना. लोभ, लालच, बेहद गुस्सा, किसी की बढ़ती देखकर जलना, किसी पर बुरी निगाह करना, स्वच्छन्दता, आलस्य, काना-फँसी, पवित्रता का भङ्ग, झूठी गवाही, चोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार, बेहद शौक करना, इत्यादि जो गुनाह मुझसे जानते-अनजानते हो गए हों और जो गुनाह साफ दिल से मैंने प्रकट न किये हों, उन सबसे मैं पवित्र हो कर अलग होता हूँ।
-खो० अ०, पृ० २३-२४ । (१) शत्रवः पराङ्मुखः भवन्तु स्वाहा ।
-~-बृहत् शान्ति । (२) काएण काइयस्स, पडिक्कमे वाइयस्स वायाए । मणसा माणसियस्स, सव्वस्स वयाइयारस्स ॥
--चंदित्त। (३) सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् ।
प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ।। (४) अठारह पापस्थान की निन्दा ।
'आवश्यक' का इतिहास 'आवश्यक-क्रिया'-अन्तर्दृष्टि के उन्मेष व आध्यात्मिक जीवन के प्रारम्भ से 'श्रावश्यक-क्रिया' का इतिहास शुरू होता है। सामान्यरूप से यह नहीं कहा जा सकता कि विश्व में आध्यात्मिक जीवन सबसे पहले कब शुरू हुआ। इस लिए 'श्रावश्यक-क्रिया' भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि ही मानी जाती है। ___ 'आवश्यक-सूत्र'-जो व्यक्ति सच्चा आध्यात्मिक है, उसका जीवन स्वभाव से ही 'आवश्यक-क्रिया'-प्रधान बन जाता है। इसलिए उसके हृदय के अन्दर से 'आवश्यक-क्रिया'-द्योतक ध्वनि उठा ही करती है। परन्तु जब तक साधकअवस्था हो, तब तक व्यावहारिक, धार्मिक-सभी प्रवृत्ति करते समय प्रमादवश 'श्रावश्यक-क्रिया' में से उपयोग बदल जाने का और इसी कारण ताद्विषयक अन्तर्ध्वनि भी बदल जाने का बहुत संभव रहता है। इसलिए ऐसे अधिकारियों को लक्ष्य में रखकर 'आवश्यक-क्रिया' को याद कराने के लिए महर्षियों ने खास-खास समय नियत किया है और 'आवश्यक-क्रिया' को याद करानेवाले
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