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आवश्यक क्रिया
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को ही वास्तविक जीवन समझनेवाले तथा उस जीवन की वृद्धि चाहनेवाले सभी सम्प्रदाय के प्रवर्तकों ने अपने-अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने का, उस जीवन के तत्त्वों का तथा उन तत्त्वों का अनुसरण करते समय जानते-अनजानते हो जानेवाली गलतियों को सुधार कर फिर से वैसा न करने का उपदेश दिया है। यह हो सकता है कि भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय-प्रवर्तकों की कथन-शैली भिन्न हो, भाषा भिन्न हो और विचार में भी न्यूनाधिकता हो; पर यह कदापि संभव नहीं कि आध्यात्मिक जीवन-निष्ठ उपदेशकों के विचार का मूल एक न हो । इस जगह 'आवश्यक-किया' प्रस्तुत है । इसलिए यहाँ सिर्फ उस के संबन्ध में ही भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का विचार-साम्य दिखाना उपयुक्त होगा। यद्यपि सब प्रसिद्ध सम्प्रदायों की सन्ध्या का थोड़ा बहुत उल्लेख करके उनका विचार-साम्य दिखाने का इरादा था; पर यथेष्ट साधन न मिलने से इस समय थोड़े में ही संतोष कर लिया जाता है। यदि इतना भी उल्लेख पाठकों को रुचिकर हुआ तो वे स्वयं ही प्रत्येक सम्प्रदाय के मूल ग्रन्थों को देखकर प्रस्तुत विषय में अधिक जानकारी कर लेंगे। यहाँ सिर्फ जैन, बौद्ध, वैदिक और जरथोश्ती अर्थात् पारसी धर्म का वह विचार दिखाया जाता है।
बौद्ध लोग अपने मान्य 'त्रिपिटक' ग्रन्थों में से कुछ सूत्रों को लेकर उनका नित्य पाठ करते हैं । एक तरह से वह उनका अवश्य कर्तव्य है। उसमें से कुछ वाक्य और उनसे मिलते-जुलते 'प्रतिक्रमण' के वाक्य नीचे दिये जाते हैंबौद्धः
(१) नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा संबुद्धस्स । बुद्धं सरणं गच्छामि । धम्म सरणं गच्छामि । संघं सरणं गच्छामि ।।
-लघुपाठ, सरणत्तय । (२) पाणातिपाता वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । अदिन्नादाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । कामेसु मिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । मुसावादा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । सुराभेरयमज्जपमादवाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि ।
-लघुपाठ, पंचसील । (३) असेवना च बालानं पण्डितानं च सेवना ।
पूजा च पूजनीयानं एतं मंगलमुत्तमं ।। मातापितु उपट्टानं पुत्तदारस्स . संगहो । अनाकुला च कम्मन्ता एतं मंगलमुत्तमं ।
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