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________________ आवश्यक क्रिया १८६ कीमती रसायन को अनुपयोगी समझना। प्रयत्न करने पर भी वृद्ध-अवस्था, मतिमन्दता आदि कारणों से जिनको अर्थ ज्ञान न हो सके, वे अन्य किसी ज्ञानी के आश्रित होकर ही धर्म-क्रिया करके उससे फायदा उठा सकते हैं। व्यवहार में भी अनेक लोग ऐसे देखे जाते हैं, जो ज्ञान की कमी के कारण अपने काम को स्वतन्त्रा से पूर्णतापूर्वक नहीं कर सकते, वे किसी के आश्रित हो कर ही काम करते हैं और उससे फायदा उठाते हैं । ऐसे लोगों की सफलता का कारण मुख्यतया उनकी श्रद्धा ही होती है। श्रद्धा का स्थान बुद्धि से कम नहीं है। अर्थ-ज्ञान होने पर भी धार्मिक क्रियायों में जिनको श्रद्धा नहीं है, वे उन से कुछ भी फायदा नहीं उठा सकते । इसलिए श्रद्धापूर्वक धार्मिक क्रिया करते रहना और भरसक उसके सूत्रों का अर्थ भी जान लेना, यही उचित है। . (३) अनेक लोग ऐसा कहते हैं कि 'अावश्यक-क्रिया' के सूत्रों की रचना जो संस्कृत, प्राकृत आदि प्राचीन शास्त्रीय भाषा में है, इसके बदले वह प्रचलित लोक-भाषा में ही होना चाहिए । जब तक ऐसा न हो तब तक 'आवश्यक-क्रिया' विशेष उपयोगी नहीं हो सकती। ऐसा कहनेवाले लोग मन्त्रों की शाब्दिक महिमा तथा शास्त्रीय भाषाओं की गम्भीरता, भावमयता, ललितता आदि गुण नहीं • जानते । मन्त्रों में आर्थिक महत्त्व के उपरान्त शाब्दिक महत्त्व भी रहता है, जो उनको दूसरी भाषा में परिवर्तन करने से लुप्त हो जाता है । इसलिए जो-जो मन्त्र जिस-जिस भाषा में बने हुए हों, उनको उसी भाषा में रखना ही योग्य है । मन्त्रों को छोड़कर अन्य सूत्रों का भाव प्रचलित लोक-भाषा में उतारा जा सकता है, पर उसकी वह खूबी कभी नहीं रह सकती, जो कि प्रथमकालीन भाषा में है। - 'श्रावश्यक-क्रिया' के सूत्रों को प्रचलित लोक-भाषा में रचने से प्राचीन महत्त्व के साथ-साथ धार्मिक-क्रिया कालीन एकता का भी लोप हो जाएगा और सूत्रों की रचना भी अनवस्थित हो जाएगी। अर्थात् दूर-दूर देश में रहनेवाले एक धर्म के अनुयायी जब तीर्थ आदि स्थान में इकट्ठे होते हैं, तब प्राचार, विचार, भाषा, पहनाव आदि में भिन्नता होने पर भी वे सब धार्मिक क्रिया करते समय एक ही सूत्र पढ़ते हुए और एक ही प्रकार की विधि करते हुए पूर्ण एकता का अनुभव करते हैं । यह एकता साधारण नहीं है । उसको बनाए रखने के लिए धार्मिक क्रियाओं के सूत्रपाठ आदि को शास्त्रीय भाषा में कायम रखना बहुत जरूरी है । इसी तरह धार्मिक क्रियाओं के सूत्रों की रचना प्रचलित लोकभाषा में होने लगेगी तो हर जगह समय-समय पर साधारण कवि भी अपनी कवित्व-शक्ति का उपयोग नए-नए सूत्रों को रचने में करेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि एक ही प्रदेश में जहाँ की भाषा एक है, अनेक कर्ताओं के अनेक सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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