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अनेकान्तवाद की मर्यादा
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यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उक्त तीनों का ही नहीं किन्तु दूसरी भी वैसी सत्र समस्याओं का व्यावहारिक समाधान, यदि प्रज्ञा है तो अनेकान्त दृष्टि के द्वारा तथा हिंसा के सिद्धान्त के द्वारा पूरे तौर से किया जा सकता है । उदाहरण के तौर पर जैनधर्म प्रवृत्ति मार्ग है या निवृत्ति मार्ग ? इस प्रश्न का उत्तर, अनेकान्तदृष्टि की योजना करके, यों, दिया जा सकता है - " जैनधर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति उभय मार्गावलम्बी है । प्रत्येक क्षेत्र में जहाँ सेवा का प्रसंग हो वहाँ अर्पण की प्रवृत्ति का आदेश करने के कारण जैन धर्म प्रवृत्तिगामी है और जहाँ भोग-वृत्ति का प्रसंग हो वहाँ निवृत्ति का प्रदेश करने के कारण निवृत्तगामी भी है । " परन्तु जैसा आजकल देखा जाता है, भोग में अर्थात् दूसरों से सुविधा ग्रहण करने में प्रवृत्ति करना और योग में अर्थात् दूसरों को अपनी सुविधा देने में - निवृत्ति धारण करना, यह अनेकान्त तथा हिंसा का विकृत रूप अथवा उनका स्पष्ट भंग है । श्वेताम्बरीय - दिगम्बरीय झगड़ों में से कुछ को लेकर उन पर भी अनेकान्तदृष्टि लागू करनी चाहिए । नग्नत्व और वस्त्रधारित्व के विषय में द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक-इन दो नयों का समन्वय बराबर हो सकता है। जैनत्व अर्थात् वीतरागत्व यह तो द्रव्य ( सामान्य है और नग्नत्व तथा वस्त्रधारित्व, एवं नग्नत्व तथा वस्त्रधारण के विविधस्वरूप - ये सब पर्याय (विशेष) हैं । उक्त द्रव्य शाश्वत है। पर उसके उक्त पर्याय सभी अशाश्वत तथा । प्रत्येक पर्याय यदि द्रव्यसम्बद्ध है - द्रव्य का बाधक नहीं है तो अन्यथा सभी असत्य हैं । इसी तरह जीवनशुद्धि यह द्रव्य है और स्त्रीत्व या पुरुषत्व दोनों पर्याय
व्यापक हैं वह सत्य है
विषय में घटानी चाहिए ।
हैं । यही बात तीर्थ के और मन्दिर के हकों के न्यात, जात और फिर्कों के बारे में भेदाभेद भङ्गी का उपयोग करके ही झगड़ा निपटाना चाहिए | उत्कर्ष के सभी प्रसंगों में अभिन्न अर्थात् एक हो जाना और अपकर्ष के प्रसंगों में भिन्न रहना अर्थात् दलबन्दी न करना । इसी प्रकार वृद्धलग्न, अनेक पत्नीग्रहण, पुनर्विवाह जैसे विवादास्पद विषयों के लिए भी कथंचित् विधेय-अविधेय की भंगी प्रयुक्त किये बिना समाज समंजस रूप से जीवित रह नहीं सकता ।
चाहे जिस प्रकार से विचार किया जाए पर श्राजकल की परिस्थिति में तो यह सुनिश्चित है कि जैसे सिद्धसेन, समंतभद्र आदि पूर्वाचार्यों ने अपने समय के विवादास्पद पक्ष-प्रतिपक्षों पर अनेकान्त का और तज्जनित नय आदि वादों का प्रयोग किया है वैसे ही हमें भी उपस्थित प्रश्नों पर उनका प्रयोग करना ही चाहिए । यदि हम ऐसा करने को तैयार नहीं हैं तो उत्कर्ष की अभिलाषा रखने का भी हमें कोई अधिकार नहीं है ।
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