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जैन धर्म और दर्शन
तत्त्व की ओर सारी दुनिया देख रही है और उनके समन्वयशील व्यवहार के कायल उनके प्रतिपक्षी तक हो रहे हैं। महावीर की हिंसा और अनेकान्त दृष्टि की डौंडी पीटनेवालों की ओर कोई धीमान् आँख उठाकर देखता तक नहीं और गांधीजी की तरफ सारा विचारक वर्ग ध्यान दे रहा है । इस अन्तर का कारण क्या है ? इस सवाल के उत्तर में सब कुछ श्रा जाता है।
अब कैसा उपयोग होना चाहिए ?
अनेकान्त दृष्टि यदि श्राध्यात्मिक मार्ग में सफल हो सकती है और अहिंसा का सिद्धान्त यदि श्रध्यात्मिक कल्याण साधक हो सकता है तो यह भी मानना चाहिए कि ये दोनों तत्त्व व्यावहारिक जीवन का श्रेय श्रवश्य कर सकते हैं; क्योंकि जीवन व्यावहारिक हो या आध्यात्मिक- पर उसकी शुद्धि के स्वरूप में भिन्नता हो ही नहीं सकती और हम यह मानते हैं कि जीवन की शुद्धि अनेकान्त दृष्टि और हिंसा के सिवाय अन्य प्रकार से हो ही नहीं सकती इसलिए हमें जीवन व्यावहारिक या आध्यात्मिक कैसा ही पसंद क्यों न हो पर यदि उसे उन्नत बनाना इष्ट है तो उस जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनेकान्त दृष्टि को - तथा हिंसा तत्त्व को प्रज्ञापूर्वक लागू करना ही चाहिए । जो लोग व्यावहारिक जीवन में इन दो तत्त्वों का प्रयोग करना शक्य नहीं समझते उन्हें सिर्फ श्रध्यात्मिक कहलानेवाले जीवन को धारण करना चाहिए। इस दलील के फलस्वरूप अन्तिम प्रश्न यही होता है कि तब इस समय इन दोनों तत्त्वों का उपयोग व्यावहारिक जीवन में कैसे किया जाए ? इस प्रश्न का उत्तर देना ही अनेकान्तबाद की मर्यादा है ।
जैन समाज के व्यावहारिक जीवन की कुछ समस्याएँ ये हैं
१ – समग्र विश्व के साथ जैन धर्म का असली मेल कितना और किस प्रकार का हो सकता है ?
२ - राष्ट्रीय आपत्ति और संपत्ति के समय जैन धर्म कैसा व्यवहार रखने की इजाजत देता है ?
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३ – सामाजिक और साम्प्रदायिक भेदों तथा फूटों को मिटाने की कितनी शक्ति जैन धर्म में है ?
यदि इन समस्याओं को हल करने के लिए अनेकान्त दृष्टि तथा अहिंसा का उपयोग हो सकता है तो वही उपयोग इन दोनों तत्त्वों की प्राणपूजा है और यदि ऐसा उपयोग न किया जा सके तो इन दोनों की पूजा सिर्फ पाषाणपूजा या शब्द पूजा मात्र होगी । परंतु मैंने जहाँ तक गहरा विचार किया है उससे
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