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________________ १५५ अनेकान्तवाद की मर्यादा थीं, उनके समन्वय करने का आदेश–अनेकान्त-दृष्टि ने किया और उसमें से नयवाद फलित हुआ जिससे कि दार्शनिक मारा-मारी कम हो; पर दूसरी तरफ एक-एक वाक्य पर अधैर्य और नासमझी के कारण पण्डित-गण लड़ा करते थे। एक पण्डित यदि किसी चीज को नित्य कहता तो दूसरा सामने खड़ा होकर यह कहता कि वह तो अनित्य है, नित्य नहीं। इसी तरह फिर पहला पण्डित दूसरे के विरुद्ध बोल उठता था। सिर्फ नित्यत्व के विषय में ही नहीं किन्तु प्रत्येक अंश में यह झगड़ा जहाँ-तहाँ होता ही रहता था। यह स्थिति देखकर अनेकान्त-दष्टि वाले तत्कालीन प्राचार्यों ने उस झगड़े का अन्त अनेकान्त-दष्टि के द्वारा करना चाहा और उस प्रयत्न के परिणाम स्वरूप 'सप्तभङ्गीवाद' फलित हुआ। अनेकान्त-दृष्टि के प्रथम फलस्वरूप नयवाद में तो दर्शनों को स्थान मिला है और उसी के दूसरे फलस्वरूप सप्तभङ्गीवाद में किसी एक ही वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों को या विचारों को स्थान मिला है। पहले वाद में समूचे सब दर्शन संगृहीत हैं और दूसरे में दर्शन के विशकलित मन्तव्यों का समन्वय है । प्रत्येक फलितवाद की सूक्ष्म चर्चा और उसके इतिहास के लिए यहाँ स्थान नहीं है और न उतना अवकाश ही है तथापि इतना कह देना जरूरी है कि अनेकान्तदृष्टि ही महावीर की मूल रष्टि और स्वतन्त्र दृष्टि है। नयवाद तथा सप्तभङ्गोवाद आदि तो उस दृष्टि के ऐतिहासिक परिस्थिति अनुसारी प्रासंगिक फल मात्र हैं। अतएव नय तथा सप्तभङ्गी आदि वादों का स्वरूप तथा उनके उदाहरण बदले भी जा सकते हैं, पर अनेकान्त-दृष्टि का स्वरूप तो एक ही प्रकार का रह सकता हैभले ही उसके उदाहरण बदल जाएँ। अनेकान्त-दृष्टि का असर जब दूसरे विद्वानों ने अनेकान्त-दृष्टि को तत्त्वरूप में ग्रहण करने की जगह सांप्रदायिकवाद रूप में ग्रहण किया तब उसके ऊपर चारों ओर से प्रारूपों के प्रहार होने लगे । बादरायण जैसे सूत्रकारों ने उसके खण्डन के लिए सूत्र रच डाले और उन सूत्रों के भाष्यकारों ने उसी विषय में अपने भाष्यों की रचनाएँ की । वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और शांतरक्षित जैसे बड़े-बड़े प्रभावशाली बौद्ध विद्वानों ने भी अनेकान्तवाद की पूरी खबर ली। इधर से जैन विचारक विद्वानों ने भी उनका सामना किया । इस प्रचण्ड संघर्ष का अनिवार्य परिणाम यह आया कि एक अोर से अनेकान्त-दृष्टि का तर्कबद्ध विकास हुआ और दूसरी ओर से उसका प्रभाव दूसरे विरोधी सांप्रदायिक विद्वानों पर भी पड़ा । दक्षिण हिन्दुस्तान में प्रचण्ड दिगम्बराचार्यों और प्रकाण्ड मीमांसक तथा वेदान्त के विद्वानों के बीच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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