SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्तवाद की मर्यादा १५३ . अनेकान्त साहित्य का विकास- भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि को पहले अपने जीवन में उतारा था और उसके बाद ही दूसरों को इसका उपदेश दिया था। इसलिए अनेकान्तदृष्टि की स्थापना और प्रचार के निमित्त उनके पास काफी अनुभवबलं और तपोबल था । अतएव उनके मल उपदेश में से जो कुछ प्राचीन अवशेष आजकल पाए जाते हैं उन आगमग्रन्थों में हम अनेकान्त-दृष्टि को स्पष्ट रूप से पाते हैं सही, पर उसमें तर्कवाद या खण्डन-मण्डन का वह जटिल जाल नहीं पाते जो कि पिछले साहित्य में देखने में आता है। हमें उन आगम ग्रन्थों में अनेकान्तदृष्टि का सरल स्वरूप और संक्षिप्त विभाग ही नजर आता है। परन्तु भगवान् के बाद जब उनकी दृष्टि पर संप्रदायकायम हुअा और उसका अनुगामी समाज स्थिर हुआ तथा बढ़ने लगा, तब चारों ओर से अनेकान्त दृष्टि पर हमले होने लगे। महावीर के अनुगामी प्राचार्यों में त्याग और प्रज्ञा होने पर भी, महावीर जैसा स्पष्ट जीवन का अनुभव और तप न था । इसलिए उन्होंने उन हमलों से बचने के लिए नैयायिक गौतम और वात्स्यायन के कथन की तरह वादकथा के उपरान्त जल्प और कहीं-कहीं वितण्डा का भी आश्रय लिया है। अनेकान्त-दष्टि का जो तत्त्व उनको विरासत में मिला था उसके संरक्षण के लिए उन्होंने जैसे बन पड़ा वैसे कभी वाद किया, कभी जल्प और कभी वितण्डा । इसके साथ ही साथ उन्होंने अनेकान्त दृष्टि को निर्दोष स्थापित करके उसका विद्वानों में प्रचार भी करना चाहा और इस चाहजनित प्रयत्न से उन्होंने अनेकान्त-दृष्टि के अनेक मर्मों को प्रकट किया और उनकी उपयोगिता स्थापित की । इस खण्डनमण्डन, स्थापन और प्रचार के करीब दो हजार वर्षों में महावीर के शिष्यों ने सिर्फ अनेकान्त-दृष्टि विषयक इतना बड़ा ग्रन्थ समूह बना डाला है कि उसका एक खासा पुस्तकालय बन सकता है। पूर्व-पश्चिम और दक्खिन-उत्तर हिन्दुस्तान के सब भागों में सब समयों में उत्पन्न होनेवाले अनेक छोटे-बड़े और प्रचण्ड आचार्यों ने अनेक भाषाओं में केवल अनेकांत-दृष्टि और उसमें से फलित होने वाले वादों पर. दण्डकारण्य से भी कहीं विस्तृत, सूक्ष्म और जटिल चर्चा की है। शुरू में जो साहित्य अनेकान्त-दृष्टि के अवलम्बन से निर्मित हुआ था उसके स्थान पर पिछला साहित्य खास कर तार्किक साहित्य-मुख्यतया अनेकान्त-दृष्टि के निरूपण तथा उसके ऊपर अन्य वादियों के द्वारा किये गए आक्षेपों के निराकरण करने के लिए रचा गया। इस तरह संप्रदाय की रक्षा और प्रचार की भावना में से जो केवल अनेकान्त विषयक साहित्य का विकास हुश्रा है उसका वर्णन करने के लिए एक खासी जुदी पुस्तिका की जरूरत है। तथापि इतना तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy