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________________ जैन-संस्कृति का हृदय ૪૭ आधार पर वह प्रवृत्ति का ऐसा मंगलमय योग साध सकती है जो सब के लिए क्षेमंकर हो । 1 जैन परंपरा में प्रथम स्थान है त्यागियों का, दूसरा स्थान है गृहस्थों का । त्यागियों को जो पाँच महाव्रत धारण करने की आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणों प्रवृत्ति करने की या सद्गुण - पोषक प्रवृत्ति के लिए बल पैदा करने की प्राथमिक शर्त मात्र है। हिंसा, सत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोषों से बिना बचे सद्गुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती और सद्गुणपोषक प्रवृति को बिनाजीवन में स्थान दिये हिंसा आदि से बचे रहना भी सर्वथा असम्भव है । इस देश में जो लोग दूसरे निवृत्ति-पंथों की तरह जैन-पंथ में भी एक मात्र निवृत्ति की ऐकान्तिक साधना की बात करते हैं वे उक्त सत्य भूल जाते हैं । जो व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतों को धारण करने की शक्ति नहीं रखता उसके लिए जैन परंपरा में अणुव्रतों की सृष्टि करके धीरे-धीरे निवृत्ति की ओर आगे बढ़ने का मार्ग भी रखा है ऐसे गृहस्थों के लिए हिंसा आदि दोषों से अंशतः बचने का उसका मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषों से बचने का साथ ही यह आदेश है कि जिस-जिस दोष को वे दूर करें उस उस दोष के विरोधी सद्गुणों को जीवन में स्थान देते जाएँ। हिंसा को दूर करना हो तो प्रेम और आत्मौपम्य के सद्गुण को जीवन में व्यक्त करना होगा । सत्य for बोले और सत्य बोलने का बल बिना पाए असत्य से निवृत्ति कैसे होगी ? परिग्रह और लोभ से बचना हो तो सन्तोष और त्याग जैसी गुण पोषक प्रवृत्तियों मैं अपने आप को खपाना ही होगा। इस बात को ध्यान में रखकर जैन-संस्कृति पर यदि आज विचार किया जाए तो श्राजकल की कसौटी के काल में जैनों के लिए नीचे लिखी बातें कर्तव्यरूप फलित होती हैं । विधान किया है । अभ्यास करें । पर जैन-वर्ग का कर्त्तव्य १ - - - - देश में निरक्षरता, वहम और श्रालस्य व्याप्त है । जहाँ देखो वहाँ फूंट ही फूट है। शराब और दूसरी नशीली चीजें जड़ पकड़ बैठी हैं | दुष्काल, अतिवृष्टि, परराज्य और युद्ध के कारण मानव जीवन का एक मात्र आधार पशुधन नामशेष हो रहा है । अतएव इस संबन्ध में विधायक प्रवृत्तियों की ओर सारे त्यागी वर्ग का ध्यान जाना चाहिए, जो वर्ग कुटुम्ब के बन्धनों से बरी है, महावीर का आत्मौपम्य का उद्देश्य लेकर घर से अलग हुआ है और ऋषभदेव - तथा नेमिनाथ के आदर्शों को जीवित रखना चाहता है । २ -- देश में गरीबी और बेकारी की कोई सीमा नहीं है । खेती-बारी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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