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________________ .१४६ जैन धर्म और दर्शन इतिहास और पुरानी यशोगाथाओं के सहारे न जीवित रह सकती है और न प्रतिष्ठा पा सकती है जब तक वह भावी निर्माण में योग न दे । इस दृष्टान्त से भी जैन-संस्कृति पर विचार करना संगत है । हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः प्रवृत्ति, अर्थात् पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टि से श्राविर्भूत हुई । इसके आचार-विचार का सारा ढांचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है । पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न रही । उसने एक विशिष्ट समाज का रूप धारण किया । निवृत्ति और प्रवृत्ति - समाज कोई भी हो वह एक मात्र निवृत्ति की भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्ति को न माननेवाले और सिर्फ प्रवृत्तिचक्र का ही महत्त्व माननेवाले आखिर में उस प्रवृत्ति के तूफान और आंधी में ही फंसकर मर सकते हैं तो यह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्ति का श्राश्रय बिना लिए निवृत्ति हवा का किला ही बन जाता है । ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही मानवकल्याण के सिक्के के दो पहलू हैं । दोष, गलती, बुराई और कल्याण से तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक वह दोषनिवृत्ति के साथ ही साथ सद्गुणों की और कल्याणमय प्रवृत्ति में बल न लगावे । कोई भी बीमार केवल अपथ्य और पुष्टि कुपथ्य से निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता । उसे साथ-ही-साथ पथ्यसेवन करना चाहिए । शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिये अगर जरूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नए रुधिर का संचार करना भी है। निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति ऋषभ से लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली जैन-संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है वह एक मात्र निवृत्ति के बल पर नहीं किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्ति के सहारे पर । यदि प्रवर्तक धर्मी ब्राह्मणों ने निवृत्ति मार्ग के सुन्दर तत्वों को अपनाकर एक व्यापक कल्याणकारी संस्कृति का ऐसा निर्माण किया है जो गीता में उज्जीवित होकर आज नए उपयोगी स्वरूप में गांधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन संस्कृति को भी कल्याणाभिमुख श्रावश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही श्राज की बदली हुई परिस्थिति में जीना होगा । जैन संस्कृति में तत्त्वज्ञान और प्रचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज तक पूँजी मानती आई है उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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