SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 480
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म और दर्शन परंपरा का अनंत परमाणुवाद प्राचीन सांख्यसम्मत पुरुषबहुत्वानुरूप प्रकृतिबहुत्ववाद' से दूर नहीं है। जैनमत और ईश्वर - जैन परंपरा सांख्ययोग मीमांसक आदि परंपरायों की तरह लोक को प्रवाह रूप से अनादि और अनंत ही मानती है । वह पौराणिक या वैशेषिक मत को तरह उसका सृष्टिसंहार नहीं मानती . अतएव जैन परंपरा में का संहर्ता रूप से ईश्वर जैसी स्वतंत्र व्यक्ति का कोई स्थान ही नहीं है । जैन सिद्धांत कहता है कि प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टि का श्राप ही कर्ता है। उसके अनुसार तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव में ईश्वर भाव है जो मुक्ति के समय प्रकट होता है । जिसका ईश्वर भाव प्रकट हुअा है वही साधारण लोगों के लिए उपास्य बनता है। योगशास्त्रसंमत ईश्वर भी मात्र उपास्य है, कता संहर्ता नहीं, पर जैन और योगशास्त्र की कल्पना में अन्तर है। वह यह कि योगशास्त्र सम्मत ईश्वर सदा मुक्त होने के कारण अन्य पुरुषों से भिन्न कोटि का है; जब कि जैनशास्त्र संमत ईश्वर वैसा नहीं है । जैनशास्त्र कहता है कि प्रयत्न साध्य होने के कारण हर कोई योग्य साधक ईश्वरत्व लाभ करता है और सभी मुक्त समान भाव से ईश्वर रूप से उपास्य हैं। श्रुतविद्या और प्रमाण विद्या पुराने और अपने समय तक में ज्ञात ऐसे अन्य विचारकों के विचारों का तथा स्वानुभवमूलक अपने विचारों का सत्यलक्षी संग्रह ही श्रुतविद्या है। श्रुतविद्या का ध्येय यह है कि सत्यस्पर्शी किसी भी विचार या विचारसरणी की अवगणना या उपेक्षा न हो। इसी कारण से जैन परंपरा की श्रुतिविद्या नवनव विद्याओं के विकास के साथ विकसित होती रही है। यही कारण है कि श्रुतविद्या में संग्रहनयरूप से जहाँ प्रथम सांख्यसम्मत सदद्वैत लिया गया वहीं ब्रह्माद्वैत के विचार विकास के बाद संग्रहनय रूप से ब्रह्माद्वैत विचार ने भी स्थान प्राप्त किया है। इसी तरह जहाँ ऋजुसूत्र नयरूप से प्राचीन बौद्ध क्षणिकवाद संग्रहीत हुआ है वहीं आगे के महायानी विकास के बाद ऋजुसूत्र नयरूप से १. षड्दर्शनसमुच्चय-गुणरत्नटीका-पृ०-६६----"मौलिकसांख्या हि श्रात्मानमात्मानं प्रति पृथक् प्रधानं वदन्ति । उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्वपि एक नित्यं प्रधानमिति प्रपन्नाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy