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________________ [ १४ ] विनम्र कार्य तो यह होना चाहिए कि वे राष्ट्रीय भाषा के साहित्य की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर ही दत्तचित्त रहें और खुद यथाशक्ति प्रान्तीय भाषाओं का अध्ययन भी करें, उनमें से सारग्राही भाग हिन्दी में अवतीर्ण करें तथा प्रान्तीय भाषाओं के सुलेखकों के साथ ऐसे घुलमिल जाएँ जिससे सब को उनके प्रति दरणीय अतिथि का भाव पैदा हो । अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व भले ही राजकीय सत्ता के कारण पहले-पहल शुरू हुआ, पर श्राज जो उसके प्रति प्रति आकर्षण और श्रादर-ममता का भाव है वह तो उसकी अनेकांगी गुणवत्ता के कारण ही आज भारत के ऊपर अंग्रेजी भाषा का बोझ थोपने वाली कोई परकीय सत्ता नहीं है, फिर भी हम उसके विशिष्ट सामर्थ्यं से उसके ऐच्छिक भक्त बन जाते हैं, तब हमारा फर्ज हो जाता है कि हम राष्ट्रभाषा के पक्षपाती और प्रचारक राष्ट्रभाषा में ऐसी गुणमयी मोहिनी लाने का प्रयत्न करें जिससे उसका आदर सहज भाव से सार्वत्रिक हो | हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए जितने साधन-सुभीते आज प्राप्त हैं उतने पहले कभी न थे । अब जरूरत है तो इस बात की है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का प्रत्येक अंग पूर्ण रूप से विकसित करने की ओर प्रवृत्ति की जाए । जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेज, आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय भाषाओं, दर्शनों, शास्त्रों, परम्पराओं और शिल्प स्थापत्य आदि के बारे में पिछले सौसवा सौ वर्ष में इतना अधिक और गवेषणापूर्ण लिखा है कि इसके महत्त्वपूर्ण भाग को बिना जाने हम अपने उच्चतम साहित्य की भूमिका ही नहीं तैयार कर सकते । इस दृष्टि से कहना हो तो कहा जा सकता है कि राष्ट्र-भाषा के साहित्य विषयक सब अंग-प्रत्यंगों का अद्यतन विकास सिद्ध करने के लिए एक ऐसी अकादमी आवश्यक है कि जिसमें उस विषय के पारदर्शी विद्वान् व लेखक समय-समय पर एकत्र हों और अन्य अधिकारी व्यक्तियों को अपने - अपने विषय में मार्गदर्शन करें जिससे नई पीढ़ी और भी समर्थतर पैदा हो । वेद, ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद्, पिटक, आगम, अवेस्ता आदि से लेकर आधुनिक भारतीय विविध विषयक कृतियों पर पाश्चात्य भाषाओं में इतना अधिक और कभी-कभी इतना सूक्ष्म व मौलिक लिखा गया है कि हम उसका पूरा उपयोग किए बिना हिन्दी वाङ्मय की राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ा ही नहीं सकते । मैं यहाँ कोई समालोचना करने या उपदेश देने के लिए उपस्थित नहीं हुआ हूँ, पर अपने काम को करते हुए मुझे जो अनुभव हुआ, जो विचार आया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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