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________________ [ १३ ] कायम रखने और बढ़ाने के लिए हिन्दी के सुलेखकों और विचारकों के ऊपर गम्भीर जिम्मेदारी भी है। संकुचित और भीरू मनोवृत्तिवाले प्रान्तीय भाषा के पक्षपातियों के कारण कुछ गलतफहमी पैदा होती है तो दूसरी ओर आवेशयुक्त और घमण्डी हिन्दी के कुछ समर्थकों के कारण भी कुछ गलतफहमियाँ फैल जाती हैं । फलस्वरूप ऐसा वातावरण भी तैयार हो जाता है कि मानो प्रान्तीय भाषाओं व राष्ट्र-भाषा में परस्पर प्रतिस्पर्धा हो। इसका असर सरकारी-तन्त्र में भी देखा जाता है। परन्तु मैं निश्चित रूप से मानता हूँ कि प्रान्तीय भाषाओं और राष्ट्र-भाषा के बीच कोई विरोध नहीं और न होना चाहिये। प्रान्तीय भाषाओं की प्रवृत्ति व कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से प्रान्तीय सर्वागीण शिक्षा, प्रान्तीय सामाजिक, आर्थिक व राजकीय. व्यवहार आदि तक सीमित है; जब कि राष्ट्र-भाषा का प्रवृत्तिक्षेत्र अन्तरप्रान्तीय यावत् व्यवहारों तक फैला है । इसलिये राष्ट्रीयता के नाते हरएक शिक्षित कहलाने वाले प्रान्तीय व्यक्ति को राष्ट्रभाषा का जानना उचित भी है और लाभदायक भी। इसी तरह जिनकी मातृभाषा हिन्दी है वे भी शिक्षित तथा संस्कारी कोटि में तभी गिने जा सकते हैं जब वे प्रान्तीय भाषाओं से अधिकाधिक परिचित हों। शिक्षा देना या लेना, विचार करना व उसे अभिव्यक्त करना इत्यादि सब काम मातृभाषा में विशेष आसानी से होता है और इस कारण उसमें मौलिकता भी सम्भव है। जब कोई प्रान्तीय भाषा-भाषी अपनी सहज मातृभाषा में मौलिक व विशिष्ट रूप से लिखेगा तब उसका लाभ राष्ट्र-भाषा को अवश्य मिलेगा। अनेक प्रान्तीय भाषाओं के ऐसे लेखकों के सर्जन अपने-अपने प्रान्त के अलावा राष्ट्रभर के लिए भेंट बन जाते हैं । कविवर टैगोर ने बंगाली में लिखा, पर राष्ट्रभर के लिए वह अर्पण साबित हुआ। गान्धीजी गुजराती में लिखते थे तो भी इतर भाषाओं के उपरान्त राष्ट्र-भाषा में भी अवतीर्ण होता था। सच्चा बल प्रतिभाजनित मौलिक विचार व लेखन में है, फिर वह किसी भी भाषा में अभिव्यक्त क्यों न हुआ हो। उसे बिना अपनाए बुद्धिजीवी मनुष्य सन्तुष्ट रह ही नहीं सकता । अतएव मेरी राय में प्रान्तीय भाषा-भाषियों को हिन्दी भाषा के प्रचार को श्राक्रमण समझने की या शंका-दृष्टि से देखने की कोई जरूरत नहीं। वे अपनी-अपनी भाषा में अपनी शक्ति विशेष रूप से दरसायेंगे तो उनका सर्जन अन्त में राष्ट्र-भाषा को एक देन ही साबित होगा। इसी तरह राष्ट्र-भाषा के अति उत्साही पर अदीर्घदर्शी लेखकों व वक्ताओं से भी मेरा नम्र निवेदन है कि वे अपने लेखन व भाषण में ऐसी कोई बात न कहें जिससे अन्य प्रान्तों में हिन्दी के आक्रमण का भाव पैदा हो। उत्साही व समझदार प्रचारकों का www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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