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जैन धर्म और दर्शन आत्मविद्या और उत्क्रान्तिवाद
प्रत्येक प्रात्मा चाहे वह पृथ्वीगत, जलगत या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग पशु-पक्षी रूप हो या मानव रूप हो वह सब तात्त्विक दृष्टि से समान है । यही जैन अात्मविद्या का सार है । समानता के इस सैद्धान्तिक विचार को अमल में लानाउसे यथासंभव जीवन के व्यवहार के प्रत्येक क्षेत्र में उतारने का अप्रमत्त भाव से प्रयत्न करना यही अहिंसा है । आत्मविद्या कहती कि यदि जीवन-व्यवहार में साम्य का अनुभव न हो तो आत्मसाम्य का सिद्धान्त कोरा वाद मात्र है। समानता के सिद्धान्त को अमली बनाने के लिए ही प्राचारांग सूत्र के अध्ययन में कहा गया है कि जैसे तुम अपने दुःख का अनुभव करते हो वैसा ही पर दुःख का अनुभव करो। अर्थात् अन्य के दुःख का श्रात्मीय दुःख रूप से संवेदन न हो तो अहिंसा सिद्ध होना संभव नहीं। . जैसे आत्म समानता के तात्त्विक विचार में से अहिंसा के प्राचार का समर्थन किया गया है वैसे ही उसी विचार में से जैन परम्परा में यह भी आध्यात्मिक मंतव्य फलित हुआ है कि जीवगत शारीरिक, मानसिक आदि वैषम्य कितना ही क्यों न हो पर आगंतुक है-कर्ममूलक है, वास्तविक नहीं है। अतएव क्षुद्र से तुद्र अवस्था में पड़ा हुआ जीव भी कभी मानवकोटि में आ सकता है और मानवकोटिगत जीव भी शुद्रतम वनस्पति अवस्था में जा सकता है, इतना ही नहीं बल्कि वनस्पति जीव विकास के द्वारा मनुष्य की तरह कभी सर्वथा बंधनमुक्त हो सकता है । ऊँच-नीच गति या योनि का एवं सर्वथा मुक्ति का आधार एक मात्र कर्म है । जैसा कर्म, जैसा संस्कार या जैसी वासना वैसी ही आत्मा की अवस्था, पर तात्त्विक रूप से सब आत्माओं का स्वरूप सर्वथा एक-सा है जो नैष्कर्म्य अवस्था में पूर्ण रूप से प्रकट होता है । यही आत्मसाम्यमूलक उत्क्रान्तिवाद है।
सांख्य, योग, बौद्ध श्रादि द्वैतवादी अहिंसा समर्थक परम्पराओं का और और बातों में जैन परम्परा के साथ जो कुछ मतभेद हो पर अहिंसाप्रधान आचार तथा उत्क्रान्तिवाद के विषय में सब का पूर्ण ऐकमत्य है। अात्माद्वैतवादी
औपनिषद परम्परा अहिंसा का समर्थन समानता के सिद्धान्त पर नहीं पर अद्वैत के सिद्धान्त पर करती है। वह कहती है कि तत्त्व रूप से जैसे तुम वैसे ही अन्य सभी जीव शुद्ध ब्रह्म-एक ब्रह्मरूप हैं । जो जीवों का पारस्परिक भेद देखा जाता है वह वास्तवित न होकर अविद्यामूलक है। इसलिए अन्य जीवों को अपने से अभिन्न ही समझना चाहिए और अन्य के दुःख को अपना दुःख समझ कर हिंसा से निवृत्त होना चाहिए।
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