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________________ १२३ जैन धर्म का प्राण न्यूनाधिक भार दिया है पर जैन परम्परा ने उस तत्त्व पर जितना भार दिया है और उसे जितना व्यापक बनाया है, उतना भार और उतनी व्यापकता अन्य धर्म परम्परा में देखी नहीं जाती। मनुष्य, पशु-पक्षी कीट-पतंग, और वनस्पति ही नहीं बल्कि पार्थिव जलीय आदि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओं तक की हिंसा से आत्मौपम्य की भावना द्वारा निवृत्त होने के लिए कहा गया है। विचार में साम्य दृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है उसी में से अनेकान्त दृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचार सरणी को ही पूर्ण अन्तिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना यह साम्य दृष्टि के लिए घातक है । इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का भी उतना ही आदर करना जितना अपनी दृष्टि का । यही साम्य दृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। इस भूमिका में से ही भाषा प्रधान स्याद्वाद और विचारप्रधान नयवाद का क्रमशः विकास हुआ है । यह नहीं है कि अन्यान्य परम्परात्रों में अनेकान्त दृष्टि का स्थान ही न हो। मीमांसक और कपिल दर्शन के उपरांत न्याय दर्शन में भी अनेकान्तवाद का स्थान है। बुद्ध भगवान् का विभज्यवाद और मध्यममार्ग भी अनेकान्त दृष्टि के ही फल हैं; फिर भी जैन परम्परा ने जैसे अहिंसा पर अत्यधिक • भार दिया है वैसे ही उसने अनेकान्त दृष्टि पर भी अत्यधिक भार दिया है। इसलिए जैन परम्परा में प्राचार या विचार का कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर अनेकान्त दृष्टि लागू न की गई हो या जो अनेकान्त दृष्टि की मर्यादा से बाहर हो। यही कारण है कि अन्यान्य परम्पराओं के विद्वानों ने अनेकांत दृष्टि को मानते हुए भी उस पर स्वतंत्र साहित्य रचा नहीं है, जब कि जैन परम्परा के विद्वानों ने उसके अंगभूत स्याद्वाद, नयवाद आदि के बोधक और समर्थक विपुल स्वतंत्र साहित्य का निर्माण किया है। अहिंसा हिंसा से निवृत्त होना ही अहिंसा है । यह विचार तब तक पूरा समझ में श्रा नहीं सकता जब तक यह न बतलाया जाए कि हिंसा किस की होती है तथा हिंसा कौन व किस कारण से करता है और उसका परिणाम क्या है। इसी प्रश्न को स्पष्ट समझाने की दष्टि से मुख्यतया चार विद्याएँ जैन परम्परा में फलित हुई हैं-(१) अात्मविद्या (२) कर्मविद्या (३) चरित्रविद्या और (४) लोकविद्या । इसी तरह अनेकांत दष्टि के द्वारा मुख्यतया श्रुतविद्या और प्रमाण विद्या का निर्माण व पोषण हुआ है। इस प्रकार अहिंसा, अनेकांत और तन्मूलक विद्यायें ही जैनधर्म का प्राण है जिस पर आगे संक्षेप में विचार किया जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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