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________________ ११० जैन धर्म और दर्शन अपना स्वतंत्र मार्ग स्थापित करता है तब उसको या तो पुरानी परिभाषाओं के स्थान में कुछ नई-सी परिभाषाएँ गढ़नी पड़ती हैं या पुरानी परिभाषाओं के पीछे रहे हुए पुरानी परंपराओं के भावों के स्थान में नया भाव बतलाना पड़ता है। ऐसा करते समय जाने या अनजाने वह कभी-कभी पुराने मतों की समीक्षा करता है। उदाहरणार्थ ब्राह्मण और यज्ञ जैसे शब्द वैदिक-परंपरा में अमुक भावों के साथ प्रसिद्ध थे । जब बौद्ध, जैन आदि श्रमण-परपरात्रों ने अपना सुधार स्थापित किया तब उन्हें ब्राह्मण और यज्ञ जैसे शब्दों को लेकर भी उनका भाव अपने सिद्धान्तानुसार बतलाना पड़ा। इससे ऐतिहासिक तथ्य इतना तो निर्विवाद रूप से फलित होता है कि जिन परिभाषाओं और मन्तव्यों की समालोचना नया सुधारक या विचारक करता है, वे परिभाषाएँ और वे मन्तव्य जनता में प्रतिष्ठित और गहरी जड़ जमाए हुए होते हैं, ऐसा बिना हुए नये सुधारक या विचारक को उन पुरानी परिभाषाओं का आश्रय लेने की या उनके अन्दर रहे हुए रूढ़ पुराने भावों की समालोचना करने की कोई जरूरत ही नहीं होती। यदि यह विचारसरणी ठीक है तो हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि कायदंड आदि त्रिविध दंडों की, महान् प्राणातिपात आदि दोषों से दुर्गतिरूप फल पाने की तथा उन दोषों की विरति से सुफल पाने की और तप के द्वारा निर्जरा होने की तथा संवर के द्वारा नया कर्म न आने की मान्यताएँ निर्ग्रन्थ-परंपरा में बहुत रूढ हो गयी थी, जिनका कि बौद्ध भिक्षु सच्चा-झूठा प्रतिवाद करते हैं । निर्ग्रन्थ-परंपरा की उपर्युक्त परिभाषाएँ और मान्यताएँ मात्र महावीर के द्वारा पहले पहल चलाई हुई या स्थापित हुई होती तो बौद्धों को इतना प्रबल सच-झूठ प्रतिवाद करना न पड़ता। स्पष्ट है कि त्रिदंड की परिभाषा और सँवर-निर्जरा आदि मंतव्य पूर्वकालीन निर्ग्रन्थ-परंपरा में से ही महावीर को विरासत में मिले थे। ___ हम बौद्ध-ग्रन्थों के साथ जैन आगमों की तुलनात्मक चर्चा से यहाँ इतना ही कहना चाहते हैं कि जैन आगमों में जो कायदंड आदि तीन दंडों के नाम पाते हैं और तीन दंडों की निवृत्ति का अनुक्रम से कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति रूप से विधान आता है तथा नवतत्त्वों में संवर-निर्जरा का जो वर्णन है तथा तप को निर्जरा का साधन माना गया है और महाप्राणातिपात, मृषावाद आदि दोषों से बड़े अपाय का कथन आता है वह सब निम्रन्थ-परंपरा की परिभाषा और विचार विषयक प्राचीन सम्पत्ति है। १. उत्तराध्ययन अ० २५; अ० १२. ४१, ४२, ४४; धम्मपद वर्ग २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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