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________________ त्रिदण्ड (5) त्रिदण्ड बुद्ध ने तथा उनके शिष्यों ने कायकर्म, वचन कर्म और मनःकर्म ऐसे त्रिविध कर्मों का बन्धन रूप से प्रतिपादन किया है । इसी तरह उन्होंने प्राणातिपात, मृषावाद यदि दोषों को अनर्थ रूप कहकर उनकी विरति को लाभलायक प्रतिपादित किया है तथा संवर अर्थात् पापनिरोध और निर्जरा अर्थात् कर्मक्षय को भी चारित्र के अंगरूप से स्वीकार किया है। कोई भी चारित्रलक्षी धर्मोपदेशक उपर्युक्त मन्तव्यों को बिना माने अपना श्राध्यात्मिक मन्तव्य लोगों को समझा नहीं सकता । इसलिए अन्य श्रमणों की तरह बुद्ध ने भी उपर्युक्त मंतव्यों का स्वीकार व प्रतिपादन किया हो तो यह स्वाभाविक ही है । परन्तु हम देखते हैं कि बौद्ध पिटकों में बुद्ध ने या बौद्ध भिक्षुत्रों ने अपने उपर्युक्त मंतव्यों को सीधे तौर से न बतलाकर द्रविड- प्राणायाम किया है । क्योंकि उन्होंने अपना मंतव्य बतलाने के पहले निर्ग्रन्थ परंपरा की परिभाषाओं का और परिभाषाओं के पीछे रहे हुए भावों का प्रतिवाद किया है और उनके स्थान में कहीं तो मात्र नई परिभाषा बतलाई है और कहीं तो निर्ग्रन्थ-परंपरा की अपेक्षा अपने जुदा भाव व्यक्त किया है । उदाहरणार्थनिर्ग्रन्थ-परंपरा त्रिविधकर्म के लिए कायदंड, वचनदंड और मनोदंड १ जैसी परिभाषा का प्रयोग करती थी और आज भी करती है । उस परिभाषा के स्थान में बुद्ध इतना ही कहते हैं कि मैं कायदंड, वचनदंड और मनोदंड के बदले कायकर्म, वचनकर्म और मनः कर्म कहता हूँ । और निर्ग्रन्थों की तरह कायकर्म की नहीं पर मन की प्रधानता मानता हूँ । कहते हैं कि महाप्राणातिपात और मृषावाद आदि दोषों को मैं हूँ पर उसके कुफल से बचने का रास्ता जो मैं बतलाता हूँ बतलाए रास्ते से बहुत अच्छा है । बुद्ध संवर और निर्जरा को मान्य रखते हुए मात्र इतना ही कहते हैं कि मैं भी उन दोनों तत्त्वों को मानता हूँ पर मैं निर्ग्रन्थों की तरह निर्जरा के साधन रूप से तप का स्वीकार न करके उसके साधन रूप से शील, समाधि और प्रज्ञा का विधान करता हूँ । १. स्थानांग-तृतीय स्थान सू० २२० २. मज्झिमनिकाय सु० ५६ । ३. अंगुत्तर vol. I. p. २२०. Jain Education International १०६ जुदे-जुदे बौद्ध-ग्रन्थों में श्राये हुए उपर्युक्त भाव के कथनों के ऊपर से यह बात सरलता से समझ में आ सकती है कि जब कोई नया सुधारक या विचारक For Private & Personal Use Only इसी तरह बुद्ध भी दोष मानता वह निर्ग्रन्थों के www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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