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________________ जैन धर्म और दर्शन किसी समकालीन या पूर्वकालीन मत का समन्वय नहीं किया है । उन्होंने केवल अपने मत की विशेषताओं को दिखाया है। जबकि महावीर ने ऐसा नहीं किया । उन्होंने पार्श्वनाथ के तत्कालीन संप्रदाय के अनुयायियों के साथ अपने सुधार का या परिवर्तनों का समन्वय किया है १ ० । इसलिए महावीर का मार्ग पार्श्वनाथ के संप्रदाय के साथ उनकी समन्वयवृत्ति का सूचक है । १० ५८ निग्रन्थ-परंपरा का बुद्ध पर प्रभाव बुद्ध और महावीर के बीच लक्ष्य देने योग्य दूसरा अंतर जीवनकाल का है । बुद्ध ८० वर्ष के होकर निर्वाण को प्राप्त हुए जब कि महावीर ७२ वर्ष के होकर । अब तो यह साबित-सा हो गया है कि बुद्ध का निर्वाण पहले और महावीर का पीछे हुआ है । ११ इस तरह महावीर की अपेक्षा बुद्ध कुछ वृद्ध अवश्य थे । इतना ही नहीं पर महावीर ने स्वतंत्र रूप से धर्मोपदेश देना प्रारम्भ किया इसके पहले ही बुद्ध ने अपना मार्ग स्थापित करना शुरू कर दिया था । बुद्ध को अपने मार्ग में नए-नए अनुयायियों को जुटा कर ही बल बढ़ाना था, जब कि महावीर को नए अनुयायियों को बनाने के सिवाय पार्श्व के पुराने अनुयायियों की भी अपने प्रभाव में और आसपास जमाए रखना था । तत्कालीन अन्य सत्र पन्थों के मंतव्यों की पूरी चिकित्सा या खंडन बिना किए बुद्ध अपनी संघ - रचना में सफल नहीं हो सकते थे । जब कि महा वीर का प्रश्न कुछ निराला था । क्योंकि अपने चारित्र व तेजोबल से पार्श्वनाथ के तत्कालीन अनुयायियों का मन जीत लेने मात्र से वे महावीर के अनुयायी बन ही जाते थे, इसलिए नए-नए अनुयायियों की भरती का सवाल उनके सामने इतना तीव्र न था जितना बुद्ध के सामने था । इसलिए हम देखते हैं कि बुद्ध का सारा उपदेश दूसरों की आलोचनापूर्वक ही देखा जाता है । बुद्ध ने अपना मार्ग शुरू करने के पहले जिन पन्थों को एक-एक करके छोड़ा उनमें एक निर्ग्रन्थ पंथ भी आता है । बुद्ध ने अपनी पूर्व-जीवनी का जो हाल कहा है १२ उसको पढ़ने और उसका जैन आगमों में वर्णित आचारों के साथ मिलान करने से यह निःसंदेह रूप से जान पड़ता है कि बुद्ध ने अन्य पन्थों की तरह निग्रन्थ पन्थ में भी ठीक-ठीक जीवन बिताया था, भले ही वह स्वल्पकालीन हो रहा हो । बुद्ध के साधनाकालीन प्रारम्भिक वर्षों में महावीर ने तो अपना मार्ग शुरू किया ही न था और उस समय पूर्व प्रदेश में पार्श्वनाथ के सिवाय दूसरा कोई १०. उत्तराध्ययन ० २३. ११. वीरसंवत् और जैन कालगणना । 'भारतीय विद्या' तृतीय भाग पृ० १७७ ॥ १२. मज्झिम ० ० २६ । प्रो० कोशांचीकृत बुद्धचरित (गुजराती) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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