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जैन धर्म और दर्शन
अनुसार निम्गन्थ और बौद्धपिटकों के अनुसार निग्गंठ । जहाँ तक हम जानते हैं, ऐतिहासिक साधनों के आधार पर कह सकते हैं, कि जैन परंपरा को छोड़कर और किसी परंपरा में गुरुवर्ग के लिए निर्ग्रन्थ शब्द सुप्रचलित और रूढ हुआ नहीं मिलता । इसी कारण से जैन शास्त्र “निग्गंथ पावयण" अर्थात् 'निर्ग्रन्थ प्रवचन' कहा गया है । किसी अन्य संप्रदाय का शास्त्र निर्ग्रन्थ प्रवचन नहीं कहा जाता । स्व-पर मान्यताएँ और ऐतिहासिक दृष्टि
प्रत्येक जाति और सम्प्रदाय वाले भिन्न-भिन्न प्रश्नों और विषयों के सम्बन्ध में अमुक-अमुक मान्यताएँ रखते हुए देखे जाते हैं । वे मान्यताएँ उनके दिलों में इतनी गहरी जड़ जमाए हुए होती हैं कि उन्हें अपनी वैसी मान्यताओं के बारे में कोई सन्देह तक नहीं होता । अगर कोई सन्देह प्रकट करें तो उन्हें जान जाने से भी अधिकचोटती है। सचमुच उन मान्यताओं में अनेक मान्यताएँ बिलकुल सही होती हैं, भले वैसी मान्यताओं के धारण करनेवाले लोग उनका समर्थन कर भी न सकें. और समर्थन के साधन मौजूद होते हुए भी उनका उपयोग करना न जानें। ऐसी मान्यताओं को हम अक्षरशः मानकर अपने तई संतोष धारण कर सकते हैं, तथा उनके द्वारा हम अपना जीवनविकास भी शायद कर सकते हैं । उदाहरणार्थ जैन लोग ज्ञातपुत्र महावीर के बारे में और बौद्ध लोग तथागत बुद्ध के बारे में अपने-अपने परंपरागत संस्कारों के तथा मान्यताओं के आधार पर बिलकुल ऐतिहासिक तथ्योंकी जाँच बिना किए भी उनकी भक्ति-उपासना तथा उनकी जीवनउत्क्रांति के अनुसरण के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास साध सकते हैं । फिर भी जब दूसरों के सामने अपनी मान्यताओं के रखने का तथा अपने विचारों को सही साबित करने का प्रश्न उपस्थित होता है तब मात्र इतना कहने से काम नहीं चलता कि 'आप मेरे कथन को मान लीजिए, मुझपर भरोसा रखिए' । हमें दूसरों के सम्मुख अपनी बातें या मान्यताएँ प्रतीतिकर रूप से या विश्वस्त रूप से रखना हो तो इसका सीधा-सादा और सर्वमान्य तरीका यही है कि हम ऐतिहासिक दृष्टि के द्वारा उनके सम्मुख अपनी बातों का तथ्य साबित करें । कोई भी भिन्न अभिप्राय रखनेवाला ऐतिहासिक व्यक्ति तथ्य का कायल हो ही जाता है । यही न्याय खुद हमारे अपने विषय में भी लागू होता है । दूसरों के बारे में हमारा कैसा भी पूर्वग्रह क्यों न हो पर जब हम ऐतिहासिक दृष्टि से अपने पूर्वग्रह की जाँच करेंगे तो हम सत्य-पथ पर सरलता से आ सकेंगे । अज्ञान, भ्रम और वहम जो भिन्न-भिन्न जातियों और सम्प्रदायों में लम्बी-चौड़ी खाई पैदा करते हैं अर्थात् उनके
२. भगवती ६.६.३८२
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