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________________ निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय ५१. होने के कारण तथा सातवीं सदी से इधर उसका प्रवाह अन्य नामों और स्वरूप में बदल जाने के कारण हम यहाँ उसका निर्देश नहीं करते हैं । । जैन और बौद्ध संप्रदाय अनेक परिवर्तनशील परिस्थितियों में से गुजरते हुए. भी वैसे ही जीवित हैं जैसे वैदिक संप्रदाय तथा जरथोस्तृ, यहूदी, क्रिश्चियन आदि धर्ममत जीवित हैं । जैन-मत का पूरा इतिहास तो अनेक पुस्तकों में ही लिखा जा सकता है। इस जगह हमारा उद्देश्य जैन संप्रदाय के प्राचीन स्वरूप पर थोड़ा सा ऐतिहासिक प्रकाश डालना मात्र है । प्राचीन से हमारा अभिप्राय स्थूलरूप में भ० पार्श्वनाथ ( ई० स० पूर्व ८०० ) के समय से लेकर करीब-करीब अशोक के समय तक का है । प्राचीन शब्द से ऊपर सूचित करीब पांच सौ वर्ष दरम्यान भी निर्ग्रन्थ परपरा के इतिहास में समावेश पाने वाली सब बातों पर विचार करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है क्योंकि यह काम भी इस छोटे से लेख के द्वारा पूरा नहीं हो सकता । यहाँ हम जैन-संप्रदाय से संबन्ध रखनेवाली इनी-गिनी उन्हीं बातों पर विचार करेंगे जो बौद्ध पिटकों में एक या दूसरे रूप में मिलती हैं, और जिनका समर्थन किसी न किसी रूप में प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रागमों से भी होता है । श्रमण संप्रदाय की सामान्य और संक्षिप्त पहचान यह है कि वह न तो पौर- अनादिरूप से या ईश्वर रचितरूप से वेदों का प्रामाण्य ही मानता है और न ब्राह्मणवर्ग का जातीय या पुरोहित के नाते गुरुपद स्वीकार करता है, जैसा कि वैदिकसंप्रदाय वेदों और ब्राह्मण पुरोहितों के बारे में मानता व स्वीकार करता है । सभी श्रमण-संप्रदाय अपने-अपने सम्प्रदाय के पुरस्कर्तारूप से किसी न किसी योग्यतम पुरुष को मानकर उसके वचनों को ही अन्तिम प्रमाण मानते हैं और जाति की अपेक्षा गुण की प्रतिष्ठा करते हुए संन्यासी या गृहत्यागी वर्ग का ही गुरुपद स्वीकार करते हैं । प्राचीनकाल से श्रमण - सम्प्रदायकी सभी शाखा - प्रतिशाखाओं में गुरु या त्यागी वर्ग के लिए निम्नलिखित शब्द साधारण रूप से प्रयुक्त होते थे । श्रमण, भिक्षु, अनगार, यति, साधु, तपस्वी, परिव्राजक, अर्हत्, जिन, तीर्थंकर आदि । बौद्ध और जीवक आदि संप्रदायों की तरह जैन-संप्रदाय भी अपने गुरुवर्ग के लिए उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग पहले से ही करता श्राया है तथापि एक शब्द ऐसा है कि जिसका प्रयोग जैन संप्रदाय ही अपने सारे इतिहास में पहले से आज तक अपने गुरुवर्ग के लिए करता आया है । यह शब्द है " निर्ग्रन्थ " ( निग्गन्थ ) ' | जैन आगमों के १. आचारांग १. ३. १. १०८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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