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________________ २० जैन धर्म और दर्शन इतर समकालीन तापस, परिव्राजक और बौद्ध आदि परंपराओं से उनका संबन्धऐसे संबन्ध जिन्होंने महावीर के प्रवृत्ति क्षेत्र पर कुछ असर डाला हो या महावीर की धर्म प्रवृत्ति ने उन परम्पराओं पर कुछ-न-कुछ असर डाला हो । इसी तरह पार्श्वनाथ की जो परम्परा महावीर के संघ में सम्मिलित होने से तटस्थ रही उसका अस्तित्व कब तक, किस-किस रूप में और कहाँ-कहाँ रहा अर्थात् उसका भावी क्या हुआ - यह प्रश्न भी विचारणीय है । खारवेल, जो अद्यतन संशोधन के अनुसार जैन परम्परा का अनुगामी समझा जाता है, उसका दिगम्बर या श्वेताम्बर श्रुत में कहीं भी निर्देश नहीं इसका क्या कारण ? क्या महावीर की परम्परा में सम्मिलित नहीं हुए ऐसे पार्श्वपत्यिकों की परम्परा के साथ तो उसका सम्बन्ध रहा न हो ? इत्यादि प्रश्न भी विचारणीय हैं । प्रो० याकोबी ने कल्पसूत्र की प्रस्तावना में गौतम और बौधायन धर्मसूत्र के साथ निर्ग्रन्थों के व्रत-उपव्रत की तुलना करते हुए सूचित किया है कि, निर्ग्रन्थों . के सामने वैदिक संन्यासी धर्म का आदर्श रहा है इत्यादि । परन्तु इस प्रश्न को भी अब नए दृष्टिकोण से विचारना होगा कि, वैदिक परम्परा, जो मूल में एकमात्र गृहस्थाश्रम प्रधान रही जान पड़ती है, उसमें संन्यास धर्म का प्रवेश कब कैसे और किन बलों से हुआ और अन्त में वह संन्यास धर्म वैदिक परंपरा का एक आवश्यक अंग कैसे बन गया ? इस प्रश्न की मीमांसा से महावीर पूर्ववर्ती निर्ग्रन्थ परम्परा और परिव्राजक परम्परा के संबन्ध पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ सकता है । परन्तु उन सब प्रश्नों को भावी विचारकों पर छोड़कर प्रस्तुत लेख में मात्र पार्श्वनाथ और महावीर के धार्मिक संबन्ध का ही संक्षेप में विचार किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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