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________________ भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत १६ में निरूपित थे, इस विषय में कोई सन्देह नहीं। एक भी स्थान में महावीर या उनके शिष्यों में से किसी ने ऐसा नहीं कहा कि, जो महावीर का श्रुत है वह पूर्व अर्थात् सर्वथा नवोत्पन्न है । चौदह पूर्व के विषयों की एवं उनके भेद प्रभेदों की जो टूटी-फूटी यादी नन्दी सूत्र 33 में तथा धवला ३४ में मिलती है उसका आचारांग आदि ग्यारह अंगों में तथा अन्य उपांग आदि शास्त्रों में प्रतिपादित विषयों के साथ मिलान करते हैं तो, इसमें सन्देह ही नहीं रहता कि, जैन परंपरा के श्राचार-विचार विषयक मुख्य मुद्दों की चर्चा, पावपत्यिक परंपरा के पूर्वश्रुत और महावीर की परंपरा के अंगोपांग श्रुत में समान ही है। इससे मैं अभी तक निम्नलिखित निष्कर्ष पर आया हूँ ( १ ) पार्श्वनाथीय परंपरा का पूर्वश्रुत महावीर को किसी-न-किसी रूप में प्राप्त हुआ । उसी में प्रतिपादित विषयों पर हो अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों की जुदे जुदे हाथों से रचना हुई है । ( २ ) महावीरशासित संघ में पूर्वश्रुत और आचारांग आदि श्रुत- -दोनों की बड़ी प्रतिष्ठा रही । फिर भी पूर्वश्रुत की महिमा अधिक ही की जाती रही है । इसी से हम दिगम्बर श्वेतांबर दोनों परम्परा के साहित्य में आचार्यों का ऐसा प्रयत्न पाते हैं, जिसमें वे अपने-अपने कर्म विषयक तथा ज्ञान आदि विषयक इतर पुरातन ग्रन्थों का संबन्ध उस विषय के पूर्वनामक ग्रन्थ से जोड़ते हैं, इतना ही नहीं पर दोनों परम्परा में पूर्वश्रुत का क्रमिक ह्रास लगभग एक-सा वर्णित होने पर भी कमीवेश प्रमाण में पूर्वज्ञान को धारण करनेवाले आचार्यों के प्रति विशेष बहुमान दरसाया गया है। दोनों परंपरा के वर्णन से इतना निश्चित मालूम पड़ता है कि, सारी निर्ग्रन्थ परम्परा अपने वर्तमान श्रुत का मूल पूर्व में मानती आई है । (३) पूर्वश्रुत में जिस-जिस देश - काल का एव जिन-जिन व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिंब था उससे आचारांग आदि अंगों में भिन्न देशकाल एवं भिन्न व्यक्तियों के जीवन का प्रतिबिंब पड़ा यह स्वाभाविक है; फिर भी आचार एवं तत्त्वज्ञान के मुख्य मुद्दों के स्वरूप में दोनों में कोई खास अन्तर नहीं पड़ा । उपसंहार - महावीर के जीवन तथा धर्मशासन से सम्बद्ध अनेक प्रश्न ऐसे हैं, जिनकी गवेषणा आवश्यक है; जैसे कि श्राजीवक परंपरा से महावीर का संबन्ध तथा ३३. नन्दीसूत्र, पत्र १०६ अ से । ३४ षट्खंडागम ( धवला टीका ), पुस्तक १, पृ० ११४ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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