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जैन धर्म और दर्शन नहीं दिया। उन्होंने सोचा होगा कि, अाखिर अचेलत्व या सचेलत्व, यह कोई जीवन-शुद्धि की अन्तिम कसौटी नहीं है। इसीलिए उनके निग्रंथ संघ में सचेल
और अचेल दोनों निग्रंथ अपनी-अपनी रुचि एवं शक्ति का विचार करके ईमानदारी के साथ परस्पर उदार भाव से रहे होंगे। उत्तराध्ययन का वह संवाद उस समय की सूचना देता है, जब कि कभी निर्ग्रन्थों के बीच सचेलत्व के बारे में सारासार के तारतम्य की विचारणा चली होगी। पर उस समन्वय के मूल में अनेकान्त दृष्टि का जो यथार्थ प्राण स्पन्दित होता है वह महावीर के विचार की देन है। ___ पापित्यिक परंपरा में जो चार याम थे उनके नाम स्थानांगसूत्र में यों आते हैं; (१) सर्वप्राणातिपात-(२) सर्वमृषावाद--(३) सर्वअदत्तादानऔर (४) सर्वबहिद्धादाण-से विरमण २२ । इनमें से 'बहिद्धादाण' का अर्थ जानना यहाँ प्राप्त है। नवांगीटीकाकार अभयदेव ने 'बहिद्धादाण' शब्द का अर्थ 'परिग्रह' सूचित किया है। 'परिग्रह से विरति' यह पार्धापत्यिकों का चौथा याम था, जिसमें अब्रह्म का वर्जन अवश्य अभिप्रेत था २३ । पर जब मनुष्यसुलभ दुर्बलता के कारण अब्रह्मविरमण में शिथिलता आई और परिग्रहविरति के अर्थ में स्पष्टता करने की जरूरत मालूम हुई तब महावीर ने अब्रह्मविरमण को परिग्रहविरमण से अलग स्वतंत्र यम रूप में स्वीकार करके पाँच महाव्रतों की भीष्मप्रतिज्ञा निग्रंथों के लिए रखी और स्वयं उस प्रतिज्ञा-पालन के पुरस्कर्ता हुए। इतना ही नहीं बल्कि क्षण-क्षण के जीवनक्रम में बदलनेवाली मनोवृत्तियों के कारण होनेवाले मानसिक, वाचिक, कायिक दोष भी महावीर को निग्रंथ-जीवन के लिए अत्यन्त अखरने लगे, इससे उन्होंने निग्रंथ-जीवन में सतत जागृति रखने की दृष्टि से प्रतिक्रमण धर्म को नियत स्थान दिया, जिससे कि प्रत्येक निग्रंथ सायं-प्रातः अपने जीवन की त्रुटियों का निरीक्षण करे और लगे २२. मज्झिमगा बावीसं अरहंता भगवंता चाउजामं धम्मं पएणवेंति, तं०-
सव्वातो पाणातिवायाश्रो वेरमणं, एवं मुसावायाश्रो वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणाश्रो वेरमणं, सव्वाअो बहिद्धादाणाश्रो वेरमणं १।-स्थानांग,
सूत्र २६६, पत्र २०१ श्र। २३. "बहिद्धादाणाो ” ति बहिद्धा-मैथुनं पहिग्रहविशेषः श्रादानं च
परिग्रहस्तयोर्द्वन्द्वैकत्वमथवा आदीयत इत्यादानं परिग्राह्य वस्तु तच्च धर्मोपकर. णमपि भवतीत्यत श्राह-बहिस्तात्-धर्मोपकरणाद् बहिर्यदिति । इह च मैथुनं परिग्रहेऽन्तर्भवति, न ह्यपरिगृहीता योषिद् भुज्यत इति ।-स्थानांग, २६६ सूत्रवृत्ति, पत्र २०१ ब ।
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