SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत हौ संकेत करता है । हम आचारांग में वर्णित और सबसे अधिक विश्वसनीय महावीर के जीवन - अंश से यह तो जानते ही हैं कि महावीर ने गृहत्याग किया तब एक वस्त्र –चेल धारण किया था । क्रमशः उन्होंने उसका हमेशा के वास्ते त्याग किया, और पूर्णतया अचेलत्व स्वीकार किया 1 उनकी यह चेलत्व भावना मूलगत रूप से हो या पारिपार्श्विक परिस्थिति में से ग्रहण कर आत्मसात् की हो, यह प्रश्न यहाँ प्रस्तुत नहीं; प्रस्तुत इतना ही है कि, महावीर ने सचेलत्व में से लत्व की ओर कदम बढ़ाया । इस प्रकाश में हम बौद्धग्रन्थों में आए हुए निर्ग्रन्थ के विशेषण 'एकशाटक' का तात्पर्य सरलता से निकाल सकते हैं । वह यह कि, पार्श्वपत्यिक परंपरा में निर्ग्रन्थों के लिये मर्यादित वस्त्रधारण वर्जित न था, जबकि महावीर ने वस्त्रधारण के बारे में अनेकान्तदृष्टि से काम लिया । उन्होंने सचेलत्व और अचेलत्व दोनों को निर्ग्रन्थ संघ के लिए यथाशक्ति और यथारुचि स्थान दिया । अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपने पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म' ( पृ० २०) में ऐसा ही मत दरसाया है । इसी से हम उत्तराध्ययन के केशी-गौतम-संवाद में अचेल और सचेल धर्म के बीच समन्वय पाते हैं । उसमें खास तौर से कहा गया है कि, मोक्ष के लिये तो मुख्य और पारमार्थिक लिंग-साधन ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूप आध्यात्मिक सम्पत्ति ही है । चेत्व या सचेलत्व यह तो लौकिक - बाह्य लिंगमात्र है, पारमार्थिक नहीं । इस तात्पर्य का समर्थन भगवती आदि में वर्णित पावपित्यिकों के परिवर्तन से स्पष्ट होता है । महावीर के संघ में दाखिल होनेवाले किसी भी पार्श्वपत्यिक निग्रंथ के परिवर्तन के बारे में यह उल्लेख नहीं है कि, उसने सचेलत्व के स्थान में लत्व स्वीकार किया; जब कि उन सभी परिवर्तन करनेवाले निग्रंथों के लिए निश्चित रूप से कहा गया है कि उन्होंने चार याम के स्थान में पाँच महाव्रत और प्रतिक्रमण धर्म स्वीकार किया । महावीर के व्यक्तित्व, उनकी आध्यात्मिक दृष्टि और अनेकान्त वृत्ति को देखते हुए ऊपर वर्णन की हुई सारी घटना का मेल सुसंगत बैठ जाता है । महाव्रत और प्रतिक्रमण का सुधार, यह अन्तःशुद्धि का सुधार है इसलिए महावीर ने उस पर पूरा भार दिया, जब कि स्वयं स्वीकार किए हुए अचेलत्व पर एकान्त भार २१. णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए एयं खु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ संवच्छरं साहियं मासं जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए तो चाइ तं वोसिज वत्थमणगारे ||४|| - श्रावारांग, १-६-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only १३. www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy