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जैन धर्म और दर्शन सुनते हैं १२ । तुंगिया राजगृह के नजदीक में ही कोई नगर होना चाहिये, जिसकी पहचान आचार्य विजयकल्याणसूरि आधुनिक तुंगी गाम से कराते हैं ।
बचे-खुचे ऊपर के अति अल्प वर्णनों से भी इतना तो निष्कर्ष हम निर्विवाद रूप से निकाल सकते हैं कि, महावीर के भ्रमण और धर्मोपदेश के वर्णन में पाए जाने वाले गंगा के उत्तर दक्षिण के कई गाँव-नगर पार्श्वनाथ की परम्परा के निग्रंथों के भी विहार-क्षेत्र एवं धर्मप्रचार-क्षेत्र रहे। इसी से हम जैन आगमों में यत्र-तत्र यह भी पाते हैं कि, राजगृही आदि में महावीर की पावापत्यिकों से भेंट हुई।
खुद बुद्ध अपनी बुद्धत्व के पहले की तपश्चर्या और चर्या का जो वर्णन करते हैं उसके साथ तत्कालीन निग्रंथ आचार १४ का हम जब मिलान करते हैं, कपिलवस्तु के निग्रंथ श्रावक वप्प शाक्य का निर्देश सामने रखते हैं तथा बौद्ध पिटकों में पाए जाने वाले खास आचार और तत्त्वज्ञान संबन्धी कुछ पारिभाषिक शब्द'५, जो केवल निग्रंथ प्रवचन में हो पाए जाते हैं - इन सब पर विचार करते हैं तो ऐसा मानने में कोई खास सन्देह नहीं रहता कि, बुद्ध ने भले थोड़े
१२. भगवती, २, ५। १३. श्रमणभगवान्महावीर, पृ० ३७१ । १४. तुलना-दशवैकालिक, अ० ३, ५-१ और मज्झिमनिकाय,
महासिंहनादसुत्त । १५. पुग्गल, आसव, संवर, उपोसथ, सावक, उपासग इत्यादि ।
'पुग्गल' शब्द बौद्ध पिटक में पहले ही से जीव-व्यक्ति का बोधक रहा है। (मज्झिमनिकाय ११४)। जैन परम्परा में वह शब्द सामान्य रूप से जड़ परमाणुओं के अर्थ में रूढ हो गया है । तो भी भगवती, दशवैकालिक के प्राचीन स्तरों में उसका बौद्ध पिटक स्वीकृत अर्थ भी सुरक्षित रहा है । भगवती के ८-१०-३६१ में गौतम के प्रश्न के उत्तर में महावीर के मुख से कहलाया है कि, जीव 'पोग्गली' भी है और 'पोग्गल' भी। इसी तरह भगवती के २०-२ में जीवतत्त्व के अभिवचन--पर्यायरूप से 'पुग्गल' पद पाया है। दशवकालिक ५-१-७३ में 'पोग्गल' शब्द 'मांस' अर्थ में प्रयुक्त है, जो जीवनधारी के शरीर से संबंध रखता है । ध्यान देने योग्य बात यह है कि वह शब्द जैन-बौद्ध श्रुत से भिन्न किसी भी प्राचीन उपलब्ध श्रुत में देखा नहीं जाता।
'आसव' और 'संवर' ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्धार्थक हैं। आसव चित्त या आत्मा के क्लेश का बोधक है, जब कि संवर उसके निवारण एवं निवारणोपायका। ये दोनों शब्द पहले से जैन-आगम और बौद्ध पिटक में समान
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