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________________ जैनों ने, कभी अद्वैत वेदान्त ने तो कभी अन्य वेदान्त परम्परात्रों ने अपनी स्वतन्त्र आन्वीक्षिकी की रचना शुरू कर दी। इस तरह इस देश में प्रत्येक प्रधान दर्शन के साथ एक या दूसरे रूप में तकविद्या का सम्बन्ध अनिवार्य हो गया। जब प्राचीन आन्वीक्षिकी का विशेष बल देखा तब बौद्धों ने संभवतः सर्व प्रथम अलग स्वानुकल आन्वीक्षिकी का खाका तैयार करना शुरू किया। संभवतः फिर मीमांसक ऐसा करने लगे। जैन सम्प्रदाय अपनी मूल प्रकृति के अनुसार अधिकतर संयम, त्याग, तपस्या आदि पर विशेष भार देता आ रहा था; पर आसपास के वातावरण ने उसे भी तर्कविद्या की और झुकाया। जहाँ तक हम जान पाये हैं, उससे मालूम पड़ता है कि विक्रम की ५ वीं शताब्दी तक जैन दर्शन का खास मुकाव स्वतंत्र तर्क विद्या की ओर न था। उसमें जैसे जैसे संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रबल होता गया वैसे वैसे तर्क विद्या का आकर्षण भी बढ़ता गया । पांचवीं शताब्दी के पहले के जैन वाङ्मय और इसके बाद के जैन वाङ्मय में हम स्पष्ट भेद देखते हैं। अब देखना यह है कि जैन वाङमय के इस परिवर्तन का श्रादि सूत्रधार कौन है ? और उसका स्थान भारतीय विद्वानों में कैसा है ? आदि जैन तार्किक जहाँ तक मैं जानता हूँ, जैन परम्परा में लर्क विद्या का और तर्क प्रधान संस्कृत वाङ्मय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर । मैंने दिवाकर के जीवन और कार्यों के सम्बन्ध में अन्यत्र विस्तृत ऊहापोह किया है; यहाँ तो यथासंभव संक्षेप में उनके व्यक्तित्व का सोदाहरण परिचय कराना है। सिद्धसेन का सम्बन्ध । उनके जीवनकथानकों के अनुसार उज्जैनी और उसके अधिप विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर वह विक्रम कौन सा यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी तक के निश्चित प्रमाणों से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पाँचवीं और छठी शताब्दी का मध्य जान पड़ता है, उसे देखते हुए अधिक संभव यह है कि उजैनी का वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगप्त होगा। जो कि विक्रमादित्य रूप से प्रसिद्ध रहे। सभी नये पुराने उल्लेख यही कहते है कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे। यह कयम बिल्कुल सत्य जान पड़ता है, क्योंकि उन्होंने प्राकृत जैन वाङ्मयको १ देखिए गुजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित सम्पत्ति का गुजराती भाषान्तर, भाग ६, तथा उसका इंग्लिश भाषान्तर, श्वेताम्बर जैन कोन्फन्स,, पायधुनी, बोम्वे, द्वारा प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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