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प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर भारतीय दर्शन अध्यात्मलक्ष्य हैं । पश्चिमीय दर्शनों की तरह वे मात्र बुद्धि प्रधान नहीं हैं । उनका उद्गम ही श्रात्मशुद्धि की दृष्टि से हुआ है। वे आत्मतत्त्व को और उसकी शुद्धि को लक्ष्य में रख कर ही बाह्य जगत का भी विचार करते हैं। इसलिए सभी आस्तिक भारतीय दर्शनों के मौलिक तत्त्व एक से ही हैं। ___ जैन दर्शन का स्रोत भगवान् महावीर और पार्श्वनाथ के पहले से ही किसी न किसी रूप में चला आ रहा है यह वस्तु इतिहाससिद्ध है। जैन दर्शन की दिशा चारित्र-प्रधान है जो कि मूल आधार प्रात्म-शुद्धि की दृष्टि से विशेष संगत है। उसमें ज्ञान, भक्ति आदि तत्त्वों का स्थान अवश्य है पर वे सभी तत्त्व चारित्र-पर्यवसायी हों तभी जैनत्व के साथ संगत हैं। केवल जैन परंपरा में ही नहीं बल्कि वैदिक, बौद्ध श्रादि सभी परंपरात्रों में जब तक आध्यात्मिकता का प्राधान्य रहा या वस्तुतः उनमें आध्यात्मिकता जीवित रही तब तक उन दर्शनों में तर्क और वाद का स्थान होते हुए भी उसका प्राधान्य न रहा । इसीलिए हम सभी परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में उतना तर्क और वादताण्डव नहीं पाते हैं जितना उत्तरकालीन ग्रन्थों में ।
आध्यात्मिकता और त्याग की सर्वसाधारण में निःसीम प्रतिष्ठा जम चुकी थी। अतएव उस उस आध्यात्मिक पुरुष के श्रासपास सम्प्रदाय भी अपने आप जमने लगते थे । जहाँ सम्प्रदाय बने कि फिर उनमें मूल तत्त्व में भेद न होने पर भी छोटी छोटी बातों में और अवान्तर प्रश्नों में मतभेद और तज्जन्य विवादों का होता रहना स्वाभाविक है। जैसे जैसे सम्प्रदायों की नींव गहरी होती गई और वे फैलने लगे वैसे वैसे उनमें परस्पर विचार-संघर्ष भी बढ़ता चला । जैसे अनेक छोटे बड़े राज्यों के बीच चढ़ा-ऊतरी का संघर्ष होता रहता है । राजकीय संघर्षों ने यदि लोकजीवन में क्षोभ किया है तो उतना ही क्षोभ बल्कि उससे भी अधिक क्षोभ साम्प्रदायिक संघर्ष ने किया है। इस संघर्ष में पड़ने के कारण सभी आध्यात्मिक दर्शन तर्कप्रधान बनने लगे। कोई आगे तो कोई पीछे पर सभी दर्शनों में तर्क और न्याय का बोलबाला शुरु हुआ । प्राचीन समय में जो आन्वीक्षिकी एक सर्वसाधारण खास विद्या थी उसका आधार लेकर . धीरे धीरे सभी सम्प्रदायों ने अपने दर्शन के अनुकूल आन्वीक्षिकी की रचना को। मूल आन्वीक्षिकी विद्या वैशेषिक दर्शन के साथ घुल मिल गई पर उसके श्राधार से कभी बौद्ध-परम्परा ने तो कभी मीमांसकों ने, कभी सांख्य ने तो कभी ,
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