________________
२६३
० हरिभद्र की योगमर्ग में नवीन दिशा- श्रीहरिभद्र प्रसिद्ध जैनाचार्यों में एक हुए। उनकी बहुश्रुतता, सर्वतोमुखी प्रतिभा, मध्यस्थता और समन्वयशक्ति का पूरा परिचय कराने का यहाँ प्रसंग नहीं है । इसके लिये जिज्ञासु महाशय उनकी कृतियों को देख लेवें । हरिभद्रसूरि की शतमुखी प्रतिभा के स्रोत उनके बनाये हुए चार अनुयोगवियषक' ग्रन्थों में ही नहीं बल्कि जैन न्याय तथा भारतवर्षीय तत्कालीन समग्र दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चाबाले ग्रन्थों में भी बहे हुए हैं। इतना करके ही उनकी प्रतिभा मौन न हुई, उसने योगमार्ग में एक ऐसी दिशा दिखाई जो केवल जैन योगसाहित्य में ही नहीं बल्कि आर्यजातीय संपूर्ण योगविषयक साहित्य में एक नई वस्तु है। जैनशास्त्र में आध्यात्मिक विकास के क्रम का प्राचीन वर्णन चौदह गुणस्थानरूप से, चार ध्यान रूप से और बहिरात्म आदि तीन अवस्थाओं के रूप से मिलता है । हरिभद्रसूरि ने उसी आध्यात्मिक विकास के क्रम का योगरूप से वर्णन किया है। पर उसमें उन्होंने जो शैली रक्खी है वह अभीतक उपलब्ध योगविषयक साहित्य में से किसी भी ग्रंथ में कम से कम हमारे देखने में तो नहीं आई है। हरिभद्रसूरि अपने ग्रन्थों में अनेक 3 योगियों का नामनिर्देश करते हैं । एवं योगविषयक ग्रन्थों का उल्लेख करते हैं जो अभी प्राप्त नहीं हैं। संभव है उन अप्राप्य ग्रन्थों में उनके वर्णन की सी शैली रही हो, पर हमारे लिये तो यह वर्णनशैली और योग विषयक वस्तु बिल्कुल अपूर्व है । इस समय हरिभद्रसूरि के योगविषयक चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है जो हमारे देखने में आये हैं । उनमें से षोडशक और योगविंशिका के योगवर्णन की शैली और योगवस्तु एक ही है । योगबिन्दु की विचारसरणी और वस्तु योगविंशिका से जुदा है। योगदृष्टि समुच्चय की विचार
पनिषद् में लिखा है, जो आध्यात्मिक लोगों को देखने योग्य है-अध्यात्मोपनिषद् श्लो० ६५, ७४ ।।
१ द्रव्यानुयोगविषयक-धर्मसंग्रहणी आदि १, गणितानुयोगविषयक-क्षेत्रसमास टीका आदि २, चरणकरणानुयोगविषयक-पञ्चवस्तु, धर्मबिन्दु आदि ३, धर्मकथानुयोगविषयक-समराहच्चकहा आदि ४ ग्रन्थ मुख्य है।
२ अनेकान्तजयपताका, षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि।
३ गोपेन्द्र (योगबिन्दु' श्लोक, २००) कालातीत ( योगबि.दुःश्लोक ३००) पतञ्जलि, भदन्तभास्करबन्धु, भगवदन्त (त्त) वादी ( योगदृष्टि श्लोक १६ टीका)।
४ योगनिर्णय आदि ( योगदृष्टि० श्लोक १ टीका )।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org