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________________ २६२ इसी विचारसमता के कारण श्रीमान् हरिभद्र जैसे जैनाचार्यों ने महर्षि पतञ्जलि के प्रति अपना हार्दिक श्रादर प्रकट करके अपने योगविषयक ग्रन्थों में गुणग्राहकता का निर्भीक परिचय पूरे तौर से दिया है। और जगह जगह पतञ्जलि के योगशास्त्रगत खास साङ्केतिक शब्दों का जैन सङ्केतों के साथ मिलान करके सङ्कीर्ण-दृष्टिवालों के लिये एकताका मार्ग खोल दिया है। जैन विद्वान् यशोविजयवाचकने हरिभद्रसूरिसूचित एकता के मार्ग को विशेष विशाल बनाकर पतञ्जलि के योगसूत्र को जैन प्रक्रिया के अनुसार समझाने का थोड़ा किन्तु मार्मिक प्रयास किया है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी बत्तीसियों में उन्होंने पतञ्जलि के योगसूत्रगत कुछ विषयों पर खास बत्तीसियाँ भी रची४ हैं। इन सब बातों को संक्षेप में बतलाने का उद्देश्य यही है कि महर्षि पतञ्जलि की दृष्टिविशालता इतनी अधिक थी कि सभी दार्शनिक व साम्प्रदायिक विद्वान् योगशास्त्र के पास आते ही अपना साम्प्रदायिक अभिनिवेश भूल गये और एकरूपताका अनुभव करने लगे। इसमें कोई संदेह नहीं कि-महर्षि पतञ्जलि की दृष्टिविशालता उनके विशिष्ट योगानुभव का ही फल है, क्योंकि-जब कोई भी मनुष्य शब्दज्ञान की प्राथमिक भूमिका से आगे बढ़ता है तब बह शब्द की पूंछ न खींचकर चिन्ताज्ञान तथा भावनाज्ञान', के उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकता वाले प्रदेश में अभेद अानन्द का अनुभव करता है। दोनों में करता है। इतनी भिन्नता होने पर भी परिणामवाद की प्रक्रिया दोनों में एक सी है। १ उक्तं च योगमार्ग स्तपोनिधूतकल्मषैः । भावियोगहितायोच्चैर्मोहदीपसमं वचः ।। योग. बि. श्लो. ६६ । टीका-'उक्तं च निरूपितं पुनः योगमार्ग रध्यात्मविद्भिः पतञ्जलिप्रभृतिभिः' ॥ "एतत्प्रधानः सच्छ्राद्धः शीलवान् योगतत्परः जानात्यतीन्द्रियानस्तिथा चाह महामतिः" ॥ योगदृष्टिसमुच्चय श्लो. १०० । टीका तथा चाह महामतिः पतञ्जलिः'। ऐसा ही भाव गणग्राही श्रीयशोविजयजी ने अपनी योगावतारद्वात्रिंशिका में प्रकाशित किया है । देखो-श्लो. २० टीका । २ देखो योगबिन्दु श्लोक ४१८, ४२० । ३ देखो उनकी बनाई हुई पातञ्जलसूत्रवृत्ति । ४ देखो पातञ्जलयोगलक्षणविचार, योगावतार, क्लेशहानोपाय और योगमाहात्म्य द्वात्रिंशिका। ५ शब्द, चिन्ता तथा भावना ज्ञान का स्वरूप श्रीयशोविजयजी ने अध्यात्मो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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