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योगशास्त्र का श्रासन ऊंचा है। इसके तीन कारण हैं- १ ग्रन्थ की संक्षिप्तता तथा सरलता, २ विषय की स्पष्टता तथा पूर्णता, ३ मध्यस्थभाव तथा अनुमवसिद्धता । यही करण है कि योगदर्शन यह नाम सुनते ही सहसा पातञ्जल योगसूत्र का स्मरण होता है । श्रीशंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य में योगदर्शन का प्रतिवाद करते हुए जो 'अथ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः' ऐसा उल्लेख किया है, उससे इस बात में कोई संदेह नहीं रहता कि उनके सामने पातञ्जल योगशास्त्र से भिन्न दूसरा कोई योगशास्त्र रहा है क्यों कि पातञ्जल योगशास्त्र का आरम्भ 'अथ योगानुशासनम्' इस सूत्र से होता है, और उक्त भाष्योल्लिखित वाक्य में भी ग्रन्थारम्भसूचक प्रथशब्द है, यद्यपि उक्त भाष्य में अन्यत्र और भी योगंसम्बन्धी दो' उल्लेख हैं, जिनमें एक तो पातञ्जल योगशास्त्र का संपूर्ण सूत्र ही है, और दूसरा उसका अविकल सूत्र नहीं, किन्तु उसके सूत्र से मिलता जुलता है । तथापि 'अथ सम्यग्दर्शनाम्युपायो योगः ' इस उल्लेख की शब्दरचना और स्वतन्त्रता की ओर ध्यान देनेसे यही कहना पड़ता है कि पिछले दो उल्लेख भी उसी भिन्न योगशास्त्र के होने चाहिये, जिसका कि अंश 'थ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योगः ' यह वाक्य माना जाय । अस्तु, जो कुछ हो, श्राज हमारे सामने तो पतञ्जलि का ही योगशास्त्र उपस्थित है, और वह सर्वप्रिय है । इसलिये बहुत संक्षेप में भी उसका बाह्य तथा श्रान्तरिक परिचय कराना अनुपयुक्त न होगा ।
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इस योगशास्त्र के चार पाद और कुल सूत्र १६५ हैं । पहले पादका नाम समाधि, दूसरे का साधन, तीसरे का विभूति, और चौथे का कैवल्यपाद है । प्रथमपाद में मुख्यतया योग का स्वरूप, उसके उपाय और चित्तस्थिरता के
१ ब्रह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत ।
२ "स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः ' ब्रह्मसूत्र १ - ३ - ३३ भाष्यगत । योगशास्त्रप्रसिद्धाः मनसः पञ्च वृत्तयः परिगृह्यन्ते, 'प्रमाण विपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः नाम' २-४-१२ भाष्यगत |
पं वासुदेव शास्त्री अभ्यंकरने अपने ब्रह्मसूत्र के मराठी अनुवाद के परिशिष्ट में उक्त दो उल्लेखों का योगसूत्ररूप से निर्देश किया है, पर 'थ सम्यग्दर्शनाभ्युपायो योग:' इस उल्लेख के संबंध में कहीं भी ऊहापोह नहीं किया है ।
३ मिला पा. २ सू. ४ ।
४ मिलाओ पा. १ सू. ६ ।
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