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________________ २३२ मत' आदि अनेक अर्थ दर्शन शब्द के देखे जाते हैं। पर प्रस्तुत विषय में दर्शन शब्द का अर्थ मत यह एक ही विवक्षित है। योग के आविष्कार का श्रेय जितने देश और जितनी जातियों के आध्यात्मिक महान् पुरुषों की जीवन कथा तथा उनका साहित्य उपलब्ध है उसको देखने वाला कोई भी यह नहीं कह सकता है कि आध्यात्मिक विकास अमुक देश और अमुक जाति की ही बपौती है, क्योंकि सभी देश और सभी जातियों में न्यूनाधिक रूप से प्राध्यात्मिक विकास वाले महात्माओं के पाये जाने के प्रमाण मिलते हैं । योगका संबन्ध आध्यात्मिक विकास से है । अतएव यह स्पष्ट है कि योगका अस्तित्व सभी देश और सभी जातियों में रहा है। तथापि कोई भी विचारशील मनुष्य इस बात को इनकार नहीं कर सकता है कि योग के श्राविष्कारका या योगको पराकाष्ठा तक पहुँचाने का श्रेय भारतवर्ष और आर्यजातिको ही है। इसके सबूतमें मुख्यतया तीन बातें पेश की जा सकती हैं१ योगी, ज्ञानी, तपस्वी श्रादि आध्यात्मिक महापुरुषों की बहुलता; २ साहित्य के श्रादर्श की एकरूपता; ३ लोकरुचि । १. पहिले से आज तक भारतवर्ष में आध्यात्मिक व्यक्तियों की संख्या इतनी बड़ी रही है कि उसके सामने अन्य सब देश और जातियों के प्राध्यात्मिक व्यक्तियों की कुल संख्या इतनी अल्प जान पड़ती है जितनी कि रांगा के सामने एक छोटी सी नदी। २. तत्त्वज्ञान, प्राचार, इतिहास, काव्य, नाटक आदि साहित्य का कोई भी भाग लीजिए उसका अन्तिम श्रादर्श बहुधा मोक्ष ही होगा। प्राकृतिक दृश्य और कर्मकाण्डके वर्णन ने वेद का बहुत बड़ा भाग रोका है सही, पर इसमें संदेह नहीं कि वह वर्णन वेद का शरीर मात्र है। उसकी आत्मा कुछ और ही है-वह है परमात्मचिंतन या आध्यात्मिक भावों का आविष्करण। उपनिषदोंका प्रासाद तो ब्रह्मचिन्तन की बुन्याद पर ही खड़ा है। प्रमाणविषयक, प्रमेयविषयक कोई भी तत्त्वज्ञान संबन्धी सूत्रग्रन्थ हो उसमें भी तत्त्वज्ञान के साध्यरूपसे मोक्षका ही वर्णन मिलेगा । श्राचारविषयक सूत्र स्मृति आदि सभी ग्रन्थों में श्राचार पालन का १ 'दर्शनानि षडेवात्र' षड्दर्शन समुच्चय--श्लोक २-इत्यादि । २ उदाहरणार्थ जरथोस्त, इसु, महम्मद आदि । ३ वैशेषिकदर्शन अ० १ सू० ४ 'धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधाभ्यां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसन्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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