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________________ पंडित सुखलालजी पड़ा और फूट गया । सारा रस जमीन पर फैल गया। इस पर हमें गुस्सा आना स्वाभाविक है। पर ऐसे मौकों पर हमें, जिन्हें आध्यात्मिक साधना इष्ट है, इतना ही सोचना चाहिये कि प्यालेको या रसको नीचे गिरनेसे बचाना भले ही हमारे हाथमें न हो, पर हमारे चित्तको क्रोध द्वारा पतित होनेसे बचाना तो हमारे बसकी बात है। हम उसे क्यों न करें ? " व्यापक दृष्टि पंडितजी मूलतः ज्ञानोपासक हैं, पर ज्ञानको ही सर्वेसर्वा माननेवाले वे पोंगापंथी नहीं। वे जीवनको व्यापक दृष्टिसे देखते हैं। संकुचितता उनमें नामको भी नहीं। वे दर्शनशास्त्र एवं संस्कृत-पाली-प्राकृत साहित्यके समर्थ विद्वान होते हुए भी मनोविज्ञान, मानववंशशास्त्र, समाजशास्त्र इत्यादि विविध ज्ञान-विज्ञानकी शाखाओंके भी जानकार हैं। साथ ही जीवनोपयोगी विविध प्रवृत्तियोंका महत्त्व वे खूब जानते हैं। इसीलिए तो उन्हें गंभीर अध्ययन तथा शास्त्रीय चितनमें जितनी रुचि है उतनी ही पशुपालन, खेती, स्त्री-शिक्षा, हरिजनोद्धार, ग्रामोद्योग, खादी, कताई-बुनाई, शिक्षाका माध्यम इत्यादि राष्ट्रनिर्माण और जनसेवाके विविध रचनात्मक कार्यों में रुचि है। वे इनमें रस लेते हैं और समग्र मानवजीवनके साथ अपने व्यक्तिगत जीवनका तादात्म्य स्थापित करनेका निरंतर प्रयत्न करते हैं। अज्ञानता, अंधश्रद्धा, वहम, रूदिपरायणता आदिके प्रति पंडितजीको सख़्त नफ़रत है । स्त्री-पुरुष या मानव-मानवके ऊँच-नीचके भेदभावको देखकर उनकी आत्माको बड़ा क्लेश होता है। जिस धर्मने एक दिन जनताको अज्ञानता, अंधश्रद्धा तथा रूढ़िसे मुक्त करनेका पुण्यकार्य किया था उसी धर्म या मतके अनुयायियोंको आज प्रगतिरोधक दुगुणोंको प्रश्रय देते देखकर पंडितजीका पुण्यप्रकोप प्रकट हो जाता है और वे कह उठते हैं-"द्राक्षाक्षेत्रे गर्दभाश्चरन्ति ।" ज्ञानका हेतु सत्य-शोधन और क्रियाका हेतु जीवन-शोधन अर्थात् अहिंसापालन है । अतः यदि कहीं शास्त्रके नाम पर अंधश्रद्धा और अज्ञानताकी तथा क्रियाके नाम पर विवेकहीनता और जड़ताकी पुष्टि होती हो, तो पंडितजी उसका उग्र विरोध किये बिना रह नहीं सकते। इसीके परिणामस्वरूप वे परंपरावादी और रूढ़िवादी समाजकी घोर निंदाके पात्र बनते हैं। ज्ञानसाधनाको सफल बनानेके लिये वे सत्यको संप्रदायसे बढ़कर मानते हैं। सांप्रदायिक कदाग्रह या अपने मतका मोह उन पर कभी नहीं छाया। बुद्धि और हृदयके विकासको अवरोधक प्रवृत्तिका उनकी दृष्टिमें कोई मूल्य नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
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