SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त परिचय साधक तत्त्वोंके दर्शन कर रहे हैं । अब पंडितजी सही अर्थोंमें 'सर्वदर्शनसमन्वयके समर्थ पंडित' बन गये हैं। जीवनपद्धति पंडितजी अधिकसे अधिक स्वावलंबनके पक्षपाती हैं। किसी पर अवलंबित रहना उन्हें रुचिकर नहीं। दूसरोंकी सेवा लेते समय उन्हें बड़ा क्षोभ होता है। परावलंबन उन्हें प्रिय नहीं है, अतः उन्होंने अपने जीवनको बहुत ही सादा और कम खर्चवाला बनाया है । अपरिग्रहके वे आग्रही हैं । पंडितजीके भोजन, वाचन, लेखन या मुलाकातका कार्यक्रम सदा निश्चित रहता है । वे प्रत्येक कार्यमें नियमित रहनेका प्रयत्न करते रहते हैं । निरर्थक कालक्षेप तो उन्हें धनके दुर्व्ययसे भी विशेष असह्य है। भोजनकी परिमितता और टहलनेकी नियमितताके ही कारण पंडितजी तन और मनसे स्वस्थ रहते हैं। वे मानते हैं कि भोजनके पश्चात् आलस्यका अनुभव होना कदापि उचित नहीं । शरीरका जितना पोषण हो उतना ही उससे काम भी लिया जाय । धन-संचयकी भाँति शरीर-संचय भी मनुष्यके पतनका कारण होता है । इस मान्यताके कारण वे शरीर-पुष्टिके लिये औषधि या विशेष भोजन कभी नहीं लेते । जब स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, तब अनिवार्य रूपसे ही दवाका आश्रय लेते हैं । सन् १९३८ में पंडितजीको एपेण्डिसाइटिसका ओपरेशन बम्बईमें करवाना पड़ा था । तबसे उन्हें यह विश्वास हो गया कि तबीयतकी ओरसे लापरवाह रहने पर ही ऐसी बीमारियाँ आ घेरती हैं । अब वे अपने खाने-पीनेमें ज़्यादा चौकन्ने हो गये हैं। कमखर्चीको पंडितजी अपना मित्र मानते हैं , पर साथ ही अपने साथीके लिये सदा उदार रहते हैं। किसीका, किसी भी प्रकारका शोषण उन्हें पसंद नहीं। किसी जिज्ञासु या तत्त्वचिंतकको मिलकर पंडितजीको बहुत खुशी होती है । अपनी या औरोंकी जिज्ञासा संतुष्ट करना उनका प्रिय कार्य है । पंडिजीका जीवनमंत्र है - 'औरोंकी ओर नहीं, अपनी ओर देखो। दूसरे क्या कहते हैं, इसकी चिंता न करो। अपने मनको स्वच्छ एवं स्वस्थ रखना हमारे हाथमें है।' एक बार प्रसंगवशात् उन्होंने कहा था, "यह बात हमें सदा याद रखनी चाहिये कि हम अपने मनको अपने बसमें रख सकते हैं। मन ही बंधन और मुक्तिका कारण है। मान लीजिये मैंने किसीसे रसका प्याला मँगवाया। रसका वह भरा हुआ प्याला लाते-लाते रास्तेमें गिर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002661
Book TitleDarshan aur Chintan Part 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherSukhlalji Sanman Samiti Ahmedabad
Publication Year1957
Total Pages950
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy